Halloween party ideas 2015




देश में साम्प्रदायिक खाई बढाने का काम शुरू हो चुका है। कहीं अतीत की स्मृतियों को लेकर वक्तव्य जारी हो रहे हैं तो कहीं अतिक्रमण करके धार्मिक उन्माद फैलाने वाले जहरीले शब्दों की जुगाली हो रही है। इस सबके पीछे लोकसभा चुनावों की दस्तक और कार्यपालिका के व्दारा कर्तव्यों के प्रति उदासीनता जैसे कारण आज चौराहों से लेकर चौपालों तक चर्चा के विषय बने हुए हैं। समूचे देश में अतिक्रमण का बोलबाला है जिसे सुनियोजित षडयंत्र के तहत अंजाम तक पहुंचाया रहा है। भीडभाड वाले स्थानों पर खुलेआम कब्जे किये जा रहे हैं। कब्जे के शुरूआती दौर में कार्यपालिका के उत्तरदायी अधिकारियों, नियमित सेवायें देने वाले कर्मचारियों और समाज सेवा के कथित वृतधारियों की उदासीनता रहती हैं। महात्वपूर्ण सडकों, सरकारी जमीनों और खाली पडे स्थानों पर पहले बेरोजगारी, लाचारी, मजबूरी का नाटक करके डेरा डाला जाता है और फिर धीरे-धीरे अतिक्रमण का वास्तविक स्वरूप स्थापित हो जाता है। इन सभी स्थितियों की जानकारी उस इलाके के उत्तरदायी सरकारी अमले को रहती है परन्तु वे किन्हीं खास कारणों से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। षडयंत्रकारियों के संगठित गिरोह अपने सदस्यों को सक्रिय करके अतिक्रमण की साजिश को अंजाम तक पहुंचाते हैं। अप्रिय घटना घटित होने के बाद ही बुल्डोजर की आवाज आती है, अतिक्रमण का इतिहास खंगाला जाता है और फिर की जाती है प्रत्यक्ष कार्यवाही। सरकारी कार्यवाही के लिए पहले से तैयार बैठे अतिक्रमण काण्ड के मुख्य आरोपियों के साथ उनके आका भी पर्दे के पीछे से साम्प्रदायिक हथियारों का इस्तेमाल करने लगते हैं। एक घटना के विरोध में समूचे देश को सुलगाने की कोशिशें होने लगतीं हैं। इन अप्रिय घटनाओं के लिए वास्तविक दोषी तो कार्यपालिका के वे अधिकारी-कर्मचारी होते हैं जिन्होंने अपनी आंखों के सामने गैर कानूनी ढंग से अतिक्रमण को निर्माण तक पहुंचने दिया। मगर आज तक हमारे देश में शायद ही ऐसे किसी काण्ड के लिए किसी सरकारी मुलाजिम को आरोपी बनाया गया हो। हर बार केवल और केवल आम आवाम के बीच के खुराफाती तत्वों को ही रेखांकित किया जाता रहा है। कर्तव्यहीनता की कालिख में लिपटे लोग दूर खडे होकर तमाशा देखते रहते हैं। वर्तमान में देश के लगभग सभी महानगरों से लेकर छोटे गांवों तक में अतिक्रमण का बोलबाला है। गांव की सरकारी जमीन पटवारी की निगरानी में, वन की जमीन वनरक्षक की निगरानी में, महानगरों की जमीन राजस्व और पालिका की निगरानी में, रेलवे की जमीन विभागीय पुलिस की निगरानी में, औद्योगिक क्षेत्र की जमीन उद्योग विभाग की निगरानी में, विभागों की जमीन उनके कर्मचारियों की निगरानी में, राष्ट्रीय राजमार्ग की जमीन पैट्रोलिंग यूनिट की निगरानी में रहती है यानी कि सरकार की प्रत्येक अचल सम्पत्ति के लिए कोई न कोई अधिकारी-कर्मचारी उत्तरदायी होता है परन्तु उस पर कब कब्जा हो गया, इसका किसी के पास कोई जबाब नहीं होता। कैसे कब्जा हो गया, इस पर भी खामोशी ही हाथ लगती है। कब्जे के दौरान उत्तरदायी क्या कर रहे थे, यह प्रश्न भी अनुत्तरित ही रहता है। उत्तर देने वाले और उत्तर मांगने वाले, दौनों ही सरकारी मुलाजिम होते हैं। सो सहयोग की भावना तो बलवती होगी ही। अतिक्रमणकारियों के व्दारा कानून की धज्जियां उडाने के मामले हों या फिर अवैध कार्यों से होने वाली दुर्घटनायें, सभी में उत्तरदायी सरकारी तंत्र की अप्रत्यक्ष भागीदारी रहती ही है। देश की राजधानी में अतिक्रमण का जितना बडा खेल हो रहा है, शायद ही उतना बडा किसी अन्य शहर में होगा। इस खेल में शासकीय कर्मचारियों की अप्रत्यक्ष भागीदारी होती है परन्तु अभी तक ऐसे किसी भी प्रकरण में उनका नाम न आने से उनके हौसले बुलंदी पर पहुंच चुके हैं। अतिक्रमण का यह अवैध धंधा अब पूरी तरह से व्यवसाय का रूप ले चुका है। अनेक मामलों में खद्दर से लेकर खाकी तक, लालफीताशाही से लेकर सफेद टोपी तक और जनप्रतिनिधि से लेकर समाजसेवियों तक के नाम उजागर होने के बाद भी वे कानूनी दावपेंचों से अपने को संरक्षित कर लेते हैं। हल्व्दानी की हिंसा से लेकर हरदा के हादसे तक ने उत्तरदायी वेतनभोगियों की कर्तव्य निष्ठा को कटघरे में खडा कर दिया है। उत्तराखण्ड में जब अवैध कब्जा हो रहा था तब उत्तदायी तंत्र क्या कर रहा था। मध्य प्रदेश में औद्योगिक इकाइयों का नियमित निरीक्षण करने वाले लोग फैक्ट्री के मापदण्डों को अनदेखा कैसे करते रहे। इतिहास गवाह है कि जब पानी सिर के ऊपर होता है तब ही तंत्र की निद्रा भंग होती है। जब निर्दोष लोगों की जानें जातीं है, तब संवेदनाओं के वक्तव्य जारी होते हैं। जब खून की रंग से मां भारती का आंचल लाल होता है, तब प्रशासन सचेत होता है। चर्चा है कि यह केवल हल्व्दानी या हरदा का ही मामला नहीं है बल्कि देश के हर शहर में षडयंत्रकारियों ने अपने मंसूबे पूरे करने के लिए मजबूत किलेबंदी कर ली गई है। रेलवे लाइन के किनारों से लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग के दौनों ओर बेजा कब्जों की बाढ सी आ गई है। अतिक्रमण करके सरकारी जमीनों पर सकरी गलियों में बहुमंजिला इमारतों खडी कर ली गईं हैं ताकि जरूरत पडने पर ऊपर से पत्थरों की बरसात, बारूद की धमक और गोलियों की गडगडाहट पैदा की जा सके।  लोगों की मानें तो सकरी गलियों, ऊंची इमारतों, धार्मिक झंडों, धार्मिक परिधानों और माइक पर चिल्लाती आवाजों को एकता का प्रतीक बनाकर वर्चस्व की जंग के लिए जमीन तैयार हो चुकी है। नेटवर्किग डाटा तैयार हो चुका है। प्रत्येक आबादी में षडयंत्रकारियों के सहयोगी तैयार किये जा चुके हैं। हथियारों के जखीरे जमा हो चुके हैं। ऐसे में इन तंग गलियों में घुसकर कानूनी कार्यवाही करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। विदेशों से आने वाले पैसों, देश के गद्दारों का संरक्षण और उन्मादी लोगों की भीड ने आने वाले समय में किसी बडी दुर्घटना की संभावनायें पैदा कर दीं हैं। तिस पर अवैध घुसपैठियों की भारी जमातें देश के कोने-कोने में रिश्तेदार बनकर बस चुके हैं। उनके आकाओं ने दस्तावेजों के आइने में उन्हें भारतीय होने का प्रमाण उपलब्ध करा दिया है। हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि अब जाति, नाम, सम्प्रदाय छुपाकर बोलचाल वाले आम नामों को ही सरकारी रिकार्ड में दर्ज करवाया जा रहा है। अभी तो पिता के नाम के कारण स्थिति उजागर हो रही है परन्तु आने वाले समय में वो भी समाप्त हो जायेगी। तब पहचान छुपाकर समाज में जहर घोलने वालों को चिन्हित करना भी बेहद मुश्किल होगा। यह सब पूर्व निर्धारित षडयंत्र का चरणबध्द क्रियान्वयन है जिसे सरकारी महकमा आज भी अदृष्टिगत कर रहा है। उत्तरदायी तंत्र की कर्तव्यहीनता से हो रहा है अप्रिय घटनाओं का बाहुल्य जिसे समय रहते रोका नहीं गया तो विस्फोटक स्थिति की संभावना से इंकार नहीं किया सकता। फिलहाल इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।





Dr. Ravindra Arjariya

Accredited Journalist

for cont. - 

dr.ravindra.arjariya@gmail.com

ravindra.arjariya@gmail.com


एक टिप्पणी भेजें

www.satyawani.com @ All rights reserved

www.satyawani.com @All rights reserved
Blogger द्वारा संचालित.