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देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का दौर अपने चरम की ओर बढ रहा है। राजनैतिक दलों के व्दारा मतदाताओं को लुभाने, ललचाने और लालायित करने के प्रयास तेज होते जा रहे हैं। कोई दल की वर्तमान मान्यतायें छुपा रहा है तो कोई व्यक्ति का चरित्र। भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी अपनी पार्टी की नीतियों, नेताओं और निर्णयों को प्रचारित कर रहे हैं जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार भाजपा की आलोचना, भविष्य के सब्जबाग और भावनात्मक प्रदर्शन का सहारा ले रहे हैं। मगर सनातनी नारे को बुलंद करने में कोई भी पीछे नहीं है। मंदिरों में पूजा-पाठ करके चुनाव प्रचार का चलन तेजी से बढता जा रहा है। दूसरी ओर सभी पार्टियों के असन्तुष्टों के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी सहित अन्य क्षेत्रीय दलों के दरवाजे खुले हैं जो उम्मीदवारों के प्रयासों पर मिलने वाले वोटों को पार्टी की पकड के आइने से देखकर संतुष्ट होना चाहते है। राजनीति के संक्रमणकाल में सिध्दान्तों का अकाल बढता जा रहा है। कल तक जो  कांग्रेस के झंडे तले भाजपा पर हमलावर थे, आज वही  कमल का यशगान कर रहे है। समाजवादी पार्टी को जाति विशेष का संरक्षक मानने वाले आज अपने दल से असंतुष्ट होकर साइकिल पर नजर आ रहे है। यही हाल हाथी और झाडू का भी है। राजनैतिक महात्वाकांक्षा के वशीभूत होकर संकल्पित कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा सहन नहीं कर पा रहा है। आयातित सदस्यों का धनबल समर्पण पर भारी पड रहा है। जीवन का एक लम्बा समय दल के दलदल को साफ करने में लगाने वाले जमीनी सदस्य हमेशा ही अपनी निष्ठा, समर्पण और लोकप्रियता की दम पर टिकिट मिलने आशा लगाये रहा और जब दल ने सिध्दान्तविहीनता का परचम फहराकर दलबदल का आने वाले कुबेरपति को दल का निशान दे दिया तो ऐसे में विकल्पविहीन कर्मठ सदस्य ने भी राम बनकर दशहरे में  रावण की बने दल का दहन कर दिया। धरातली स्थितियां विकट होती जा रहीं है। प्रदर्शन वाला धनबल, पर्दे के पीछे का बाहुबल और बनावटी जनबल दिखाकर टिकिट हथियाने वालों को दलों के लालची नेताओं का खुला संरक्षण प्राप्त रहता है जो अपने नेतृत्व तक को गुमराह करके जीत की गारंटी देने में देर नहीं लगाते। वर्तमान में एक समर्पित राष्ट्रभक्त का जनप्रतिनिधि के रूप में सफल हो जाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। भावनायें, प्रतिभायें और योग्यतायें आज गौढ हो गईं हैं। महंगे हो चुके चुनावों में नंगे पैर चलने वाला योग्य व्यक्ति तो राजनैतिक दलों के कार्यालयों तक में प्रवेश नहीं पा सकता, टिकिट की दौड में शामिल होना तो दूर की बात है। दूसरी ओर पार्टियों के फंड को सार्वजनिक न करने पर सभी दल एक राय हैं। आखिर दलों के खातों में अरबों-खरबों का फंड कहां से आ रहा है, कौन दे रहा है, क्यों दे रहा है, उसका क्या हो रहा है जैसे अनगिनत सवालों का यक्ष प्रश्न बनकर युधिष्ठिर की प्रतीक्षा में खडा है। दलों के खातों में आने वाले पैसों को लेकर आरोपो-प्रत्यारोपों का दौर निर्वाचन काल में हर बार तेज हो जाता है। छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर महादेव ऐप के प्रमोटर से 508 करोड रुपये लेने का आरोप गया जा रहा है। ईडी के अनुसार 2 नवम्बर को राज्य में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर महादेव ऐप के प्रमोटर शुभम सोनी ने संयुक्त अरब अमीरात से कैश कूरियर असीम दास को छत्तीसगढ भेजा जिसकी कार तथा आवास से 5.39 करोड नगद बरामद किये गये तथा कुछ बेनामी एकाउण्ट की जानकारी भी मिली। इन एकाउण्ट की 15.59 करोड रुपये की राशि फ्रीज भी कर दी गई। भिलाई में जूस की दुकान चलाने वाले 28 वर्षीय सौरभ चंद्राकर ने अपने सहयोगी 43 वर्षीय रवि उप्पल के साथ मिलकर बेटिंग यानी सट्टेबाजी का एक आनलाइन प्लेटफार्म तैयार किया। सन् 2017 में शुरू हुए इस प्लेटफार्म की पहुंच 2020 में कोविड के दौरान खूब बढी और 2022 तक इस प्लेटफार्म पर करोडों यूजर्स पहुंच गये। महादेव बेटिंग प्लेटफार्म यानी महादेव बुक वास्तव में कई आनलाइन गेमिंग वेबसाइट्स और ऐप्स का एक सिंडीकेट है जिसका हैडक्वाटर संयुक्त अरब अमीरात में है जहां से उसे आपरेट भी किया जाता है। इसके काल सेन्टर भारत के अलावा श्रीलंका और नेपाल में भी हैं। कथित तौर पर यह ऐप क्रिकेट, टेनिस, बैडमिन्टन, पौकर और ताश समेत कई तरह के लाइव गेम में अवैध सट्टेबाजी के लिए आन लाइन प्लेटफार्म मुहैया कराता है। इस बेटिंग ऐप को 70:30 के प्राफिट शेयर पर फ्रेंचाइजी देकर चलाये जाने की जानकारी भी मिली है। इसका स्कैम 5,000 करोड से ज्यादा का होने का अनुमान है। छत्तीसगढ में पहले भी अनेक लोगों की गिरफ्तारियां हो चुकीं है जिनमें कुछ पुलिसकर्मी भी बताये जाते हैं। करोडों रुपये की इस डील के अलावा चुनावी राज्यों में निरंतर बेनामी राशियां बरामद हो रहीं है। मतदाताओं को भेंट देने के नाम पर सामग्रियों से भरे वाहन जप्त हो रहे हैं। मगर धरातल पर केवल प्यादों तक ही कसावट हो रही है। प्रमाणों की कमी का बहाना बनाकर इस तरह के अवैधानिक कृत्यों के मुखिया तक पहुंचने मेें बरती जा रही कोताही किसी से छुपी नहीं है। खुले मंचों से रेवडियां बांटने के आश्वासन दिये जा रहे हैं। वायदों की आड में लालच का लड्डू पकडाया जा रहा है। वहीं पर्दे के पीछे से जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद का जहर बोने की प्रतिस्पर्धा भी समानान्तर चल रही है। बिहार में तो बकायदा जातिगत जनगणना करके विभाजनकारी नीतियों का बीजरोपण तक हो चुका है। लगभग सभी राजनैतिक दलों ने नैतिकता के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी है। सत्ता-सुख के लिए दलों ने दुश्मनों तक को गले लगाने का फैशन अख्तियार कर लिया है। ऐसे में देश की निर्वाचन व्यवस्था के साथ जुडा दलगत राजनीति का अध्याय निरंतर विकृत होता जा रहा है। इस कुरूपता को दूर करने के लिए केवल और केवल दलविहीन निर्वाचन ही एक मात्र उपाय बचता है जिससे  व्यक्तिगत छवि का सम्मान हो सकेगा और बल के स्थान पर होगा समर्पण का राज्याभिषेक। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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