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सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया



मीडिया को स्वयं तय करना चाहिये अपनी सीमायें


आतंकवाद के विरुद्ध देश ने पहली बार मजबूती दिखाई पडी। राष्ट्र भक्ति की भावनायें हर वास्तविक नागरिक के दिल में हिलोरें लेती रहीं। पुलवामा का बदला और उसके बाद की परिस्थितियों ने समूचे विश्व में तिरंगे की शक्ति का परचम फहरा दिया। सरकार ने अपनी दूरगामी नीतियों से जहां पाकिस्तान को बेनकाब कर दिया वहीं विश्व विरादरी को आतंकवाद के मुद्दे पर अपने साथ खडा कर लिया।


 इस मध्य कुछ राजनैतिक दलों ने अपने वक्तव्यों से तुच्छ मानसिकता का परिचय दिया वहीं अनेक मीडिया घरानों ने अपने प्रसारणों-प्रकाशनों के माध्यम से गोपनीयता को भंग करने का दुस्साहस भी किया। एक ओर जांवाज अभिन्नदन ने कठोर यातनाओं के मध्य भी अपनी जुबान नहीं खोली वहीं कुछ टीवी चैनलों ने उसके पूरे प्रोफाइल के साथ-साथ उसकी जन्मकुण्डली तक पाकिस्तान को परोस दी।


 मौत से दो-दो हाथ करने वाले विंग कमाण्डर के बारे में सब कुछ जानने-बुझने के बाद तो उस पर जुल्मों का कहर ही फूट पडा, जिसके लिए केवल और केवल वे चैनल जिम्मेवार है जिन्होंने जानबूझकर ऋणात्मक कृत्यों को अंगीकार किया। समसामयिक परिस्थितियों पर समीक्षात्मक चिन्तन चल ही रहा था कि फोन की घंटी ने व्यवधान उत्पन्न कर दिया। दूसरी ओर से देश के जानेमाने वरिष्ठ पत्रकार जे. पी. दीवान का आवाज सुनते ही हमने उनसे मिलने का समय मांग लिया।


 उन्होंने भी तत्काल आने की अनुमति दे दी। वे किसी प्रोजेक्ट के बारे में हमसे विचार-विमर्श करना चाहते थे। हमने बिना देर किये बसुन्धरा स्थित जनसत्ता अपार्टमेंट का रुख किया। इसी अपार्टमेंट में उनका आलीशान आवास है। कुछ ही समय में हम उनके आवास पर थे। अभिवादन का आदान-प्रदान होने के बाद कुशलक्षेम पूछने-बताने की औपचारिकताओं के बिना ही हमने मीडिया के वर्तमान स्वरूप पर उनकी राय जानने की कोशिश की। 


स्वतंत्रता को स्वच्छंदता के रूप में परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि मीडिया को मिलने वाली छूट का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम गोपनीयता को ही भंग करने पर तुल जायें। पुलवामा की दर्दनाक घटना के बाद से सेना की गुप्त तैयारियां. हथियारों की जानकारी, नीतियों का सूत्रों के हवाले से खुलासा, पहचान प्रगट करने वाले दृश्य सहित अनेक कारकों का प्रसारण और प्रकाशन ही शत्रुओं के लिए एक्शन प्लान तैयार करने में सहायक बने। अभिन्नदन वाले प्रकरण में तो अति ही कर दी गई। नैतिकता को टीआरपी की भेंट चढाने वाले आज स्वयं की पीठ थपथपाते घूम रहे हैं। सेना के कैम्पों से लेकर सीमावर्ती इलाकों की रेकी करने जैसे दृश्यों ने न हमारी वर्तमान स्थिति तक को उजागर किया बल्कि दुश्मन को घात लगाकर हमले करने का मानचित्र ही प्रदान कर दिया। इसे न तो पत्रकारिता ही कहा जा सकता है और न ही राष्ट्रभक्त नागरिक का कृत्य। पहली बार उनके स्वर में हमने दर्द महसूस किया अन्यथा वे हमेशा ही उल्लासपूर्ण शब्दों का पर्याय बनकर ही उभरे है। मीडिया के लिए आचार संहिता जैसी लक्ष्मण रेखा की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए हमने प्रश्नवाची नजरों से उन्हें घूरना शुरू कर दिया। कानून के माध्यम से सकारात्मक परिणामों को परिणति को हाशिये पर भेजते हुए उन्होंने कहा कि नियमों से नैतिकता का पाठ नहीं पढाया जा सकता। स्वः चिन्तन ही आचरण बनकर प्रस्तुत होता है। बचपन से मिलने वाले संस्कार ही चिन्तन में जीवित होते हैं और जब बचपन की मासूम सीख परिपक्वता का आवरण ओठ लेती है तो वही स्थाई चरित्र के रूप में स्थापित हो जाता है।


 देश के चन्द मीडिया घराने स्वयं को देश का वातावरण निर्मित करने वाला ठेकेदार समझने लगे हैं। ऐसे लोगों की वास्तविकता तो  खोखली स्वार्थपरिता पर ही आधारित होती है जिसे तुष्टीकरण की खाद से निरंतर पुष्ट करने का प्रयास कुछ लोगों, दलों और घरानों द्वारा निरंतर किया जा रहा है। मीडिया को स्वयं तय करना चाहिये अपनी सीमायें, अन्यथा कानूनों की बेडियां पडते देर नहीं लगेगी। उनके शब्द ठहर गये। चेहरा तमतमाने लगा। ललाट पर पसीने की बूंदें झलकने लगीं। नजरें अंतिरिक्ष में कुछ खोज रहीं थीं। क्रोध मिश्रित दर्द उनकी भावभंगिमा से प्रगट हो रहा था। तभी नौकर ने कमरे में आकर सेंटर टेबिल पर चाय और स्वल्पाहार की प्लेटें सजाना शुरू कर दीं। तब तक हमें पूर्व में चल रहे अपने समीक्षात्मक विचारों की सही दिशा का भान हो चुका था। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज। 

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