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  भविष्य की आहट:घातक होती जा रही है आतंक से वोट बटोरने की प्रथा

       


  देश की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था को नित नई चुनौतियां मिल रहीं हैं। बिहार में अररिया के बाद मुंगेर में भी पुलिस अधिकारी की हत्या का मामला सामने आया है। अतीत गवाह है कि देश में अपराधियों के हौसले निरंतर बुलंद होते जा रहे हैं। कहीं असामाजिक तत्वों की हरकतें भीड की शक्ल में सामने आतीं हैं तो कहीं खूनी घटनाओं को जानबूझकर साम्प्रदायिक रंगों में रंगने की कोशिशें होती हैं। धर्म का अपमान, नेता पर ज्यादतीजातिगत मान्यताओं पर कुठाराघातइबादतगारों की बेअदबी जैसे शब्दों को लेकर अपराधों की इबारतें लिखी जा रहीं हैं। लोगों के मन से खाकी का खौफ खत्म होता जा रहा है। इसके पीछे अनेक कारण हैं। एक ओर खाकी पर मनमानी के आरोपों की लम्बी फेरिश्त है जिसे बढाने में खद्दरधारियों से लेकर काले कोटधारियों तक की सक्रिय भागीदारी दर्ज होती रही है तो दूसरी ओर पुलिस पर विधायिका का दबाव भी ऐसी घटनाओं को बढावा देता रहा है। सत्ताधारी दलों और विपक्षी जमातों के मध्य देश की आपराधिक घटनाओं पर सदन में होने वाली बहसोंअमर्यादित व्यवहारों और हो-हल्ला के प्रकाशनों-प्रसारणों ने असामाजिक तत्वों के मनोबल बढा दिये हैं। अवैध कारोबारों से कमाये गये धनबल से बाहुबल खरीदने वाले अब जनबल का कवच बनाकर मनमानियां करने में जुटे हैं। गैरकानूनी घटनाओं पर सियासी जंग शुरू करके उसे विवादास्पद बनाने के लिए खद्दरधारी हमेशा ही तैयार रहते हैं। वोट बैंक की राजनीति के लिए कभी रुपये के राजकीय चिन्ह को बजट से हटा दिया जाता है तो कभी अल्पसंख्यकों के नाम पर कथित बहुसंख्यकों के हितों पर प्रहार होने लगते हैं। सत्ता तक पहुंचने के लालच में लिपटे दलों का दबाव भी पुलिस पर अक्सर दिखाई पडता है। संविधान में आम नागरिक को समान रूप से प्राथमिकी दर्ज का अधिकार दिया गया है परन्तु छुटपुट घटनाओं को छोडकर विशेष घटनाओंसरकारी अधिकारी-कर्मचारी के विरुध्द मामलोंराजनेता के खिलाफ प्रकरणधनबली के आतंक की शिकायतपहुंचबली की तानाशाही वाले मामलों आदि पर शायद की कभी पुलिस थानों में पीडित की तत्काल प्रथम सूचना आख्या दर्ज हुई हो। अधिकांश मामलों में वरिष्ठ अधिकारियोंराजनैतिक नेताओं या फिर जनप्रतिनिधि के दखल के बिना प्राथमिकी दर्ज होती ही नहीं है। सूचना के पंजीकरण की कौैन कहे पीडित को आवेदन की पावती तक नहीं दी जाती है। इस दिशा में कभी भी खद्दरधारियोंकाले कोटधारियों या फिर कथित समाजसेवियों ने सार्थक पहल नहीं की है। ऐसे अनेक मामलों में तो न्यायपालिका को सीधा दखल करना पडातब कही जाकर पीडित की प्राथमिकी दर्ज हुई परन्तु प्राथमिकी दर्ज न करने वाले उत्तरदायी अधिकारी को फिर भी इस धृष्टता के लिए दण्ड नहीं मिला। ज्यादा हाय-तोबा होने पर चेतावनी देकरजांच बैठाकरलाइन अटैच करके मामले को ठंडे बस्ते में पहुंचाने का ही प्रयास किया जाता रहा है। वर्तमान हालात तो यहां तक बिगड गये हैं कि असामाजिक तत्वोंअपराधियों और आरोपियों ने राजनैतिक दलों के मुखौटे ओढकर अपने गैर कानूनी धन से प्रतिष्ठिता के कीर्तिमान स्थापित करने शुरू कर दिये हैं। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने तो एक अरोपी के बचाव में उच्चतम न्यायालय तक आवाज बुलंद की थी। घातक होती जा रही है आतंक से वोट बटोरने की प्रथा। मणिपुर जैसे राज्यों में खुलेआम कानून की धज्जियां उड रहीं हैं। आतंकियों के खेमे विस्तार लेते जा रहे हैं। नक्सलियों के पक्ष में वामपंथियों की जमातें सुरक्षा घेरा बनाये दिखती है। हथियार बेचने वाले देश तो अपने कारोबार का विस्तार करने हेतु आतंकियोंनक्सलियों और अपराधियों को खुल्लम खुल्ला अपने ब्रान्डेड हथियारों की खेपें पहुंचा रहे हैं। अपराधियों को दण्डित करानेे हेतु पुलिस की डायरी में अपराध से जुडा विवरण तो होता है परन्तु शायद ही कभी अपराधियों के पास से मिलने वाले हथियारों की आपूर्ति करने वाली श्रंृखला पर पुलिस ने विवरण प्रस्तुत किया हो। चीनअमेरिकापाकिस्तानकनाडा जैसे देशों से निरंतर अपराधियों तक हथियारों की खेपें पहुंच रहीं हैं। राजनैतिक दलों का दबावदबंगों का रुतवाधनबल की चमकजनबल की दहशतप्रभावबल का भौंकाल तो रेडलाइट चौराहों से लेकर गांव की चौपालों तक देखने को मिलता है। राजनैतिक संरक्षण मिलते ही अपराधी के चेहरे पर भइयासाहबनेताजीमसीहा जैसे मुखौटे चिपक जाते हैं। डर के मारे लोग उन्हें सम्मान देने की मजबूरी वाले गलियारे से गुजरने लगते हैं। आंतक का संदेश अब कानून बनकर स्थापित होने लगा है। कानून की धाराओं से खेलने में महारत हासिल करने वाले खद्दरधारियों की फौज जब सार्वजनिक रूप से अपराध करने वालों के पक्ष में खडी होकर वास्तविकता को प्रभावित करने लगी हो तब न्याय की देवी से वरदान की आशा करना गरीब की किस्मत में कैसे हो सकता है। सत्य की हत्या के प्रयासों में लगी स्वार्थवादियों की सेना ने देश की आन्तरिक व्यवस्था को सरेआम बंधक बना लिया है। गोरों के पदचिन्हों पर चलने वाले तत्कालीन आयातित नेताओं ने देश के संविधान में भी अंग्रेजी के बिना उच्च और उच्चतम न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक देने तक की मनाही दर्ज करा दी थी। परिणाम सामने है कि अंग्रेजी न जानने वाले व्यक्ति को स्वयं पर लगाये गये आरोपों पर स्पष्टीकरण तक देने का अधिकार नहीं है। उसके मामले में कौन क्या बोल रहा हैक्या सबूत पेश हो रहे हैंबहस में किन बातों को उठाया जा रहा हैघटना को किस रूप में प्रस्तुत किया जा रहा हैआदि जाने बिना ही आरोपी कब अपराधी बना दिया जाये और कब अपराधी निर्दोष साबित हो जायेकहा नहीं जा सकता। देश की कानून व्यवस्था पर जब तक प्रभावशाली लोगोंराजनेताओंदबंगोंधन-जन-बल और स्वार्थपरिता का प्रभाव हावी रहेगा तब तक पुलिस-प्रशासन का पारदर्शी होना असम्भव नहीं हो कठिन अवश्य है। इस हेतु आम आवाम की संगठित पहल ही परिणामात्मक सुधार ला सकती है अन्यथा कार्यपालिका-विधायिका के साथ माफियों की तिकडी केवल और केवल स्वार्थपूर्ति के लक्ष्य का ही भेदन करती रहेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


Dr. Ravindra Arjariya

Accredited Journalist

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dr.ravindra.arjariya@gmail.com


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