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                    विदेशी शक्तियों के इशारों पर चुनावी दौर में देश को नस्तनाबूत करने के षडयंत्र तेज होते जा रहे हैं। सम्प्रदायगत दंगों की पटकथा तो स्वाधीनता के बाद से ही किस्तों में लिखी जाती रही है किन्तु जातिगत वैमनुष्यता फैलाने वालों ने अब मां भारती को रक्तरंजित करने के इरादे भी जाहिर कर दिये हैं।


 समान आचार संहिता का विरोध करने वाले तो जातियों को आपस में लडवाने की तैयारी में ही जुट गये हैं। यूं तो स्वाधीनता के बाद निर्धारित हुये बटवारे के आधार को ही समाप्त करके कथित दरियादिली दिखाने का प्रयास किया गया था। 


गैर नागरिकों की भीड को एक झटके में देश पर बोझ के रूप में लाद दिया गया था। 


संविधान संरचना के दौरान भी भ्रम पैदा करने वाली स्थितियों का जानबूझकर निर्माण किया गया ताकि समय आने पर उनका उपयोग मनमानी परिभाषाओं, व्याख्याओं और विवेचनाओं के माध्यम से किया जा सके। 


मानवता की दुहाई, संवेदनाओं की पुकार और आदर्श की स्थापना के नाम पर अनेक घातक कदम उठाये गये।


 आपातकाल में तो सम्प्रदाय के आधार पर नसबंदी, मनमाने फरमानों पर मीसाबंदी और तानाशाही पूर्ण व्यवस्था लागू करके देश में जनसंख्या असंतुलन के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम को दबंगी से गति दी गई। परिणामस्वरूप अनेक स्थानों पर कथित अल्पसंख्यक अब बहुसंख्यक हो चुके हैं। भय और आतंक का साम्राज्य कायम होने की संगठित कोशिशें होने लगीं हैं। गजवा-ए-हिन्द का मुकाम हासिल करने की पुरजोर कोशिशें हो रहीं हैं। लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज रहने वाले एक ही परिवार के लोगों से निजात मिली तो नये सुल्तानों ने मण्डल आयोग व्दारा तैयार करवाई गई सिफारिशों को थोप दिया ताकि सुविधा, सहयोग और सहायता देकर अभावग्रस्त प्रतिभाओं के विकास का धरातल तैयार करने के स्थान पर उन्हें अज्ञान के गहरे अंधकार में ढकेला जा सके। जन्म के आधार पर आरक्षण का निर्धारण करके उनकी स्वभावगत जिज्ञासा ही समाप्त कर दी। मानसिक क्षमताओं का विकास ही रोक दिया। तब आरक्षण के आतंक ने अनेक जीवन लीलायें लील ली थीं। 80 प्रतिशत अंकों के साथ परीक्षायें उत्तीर्ण करने वालों पर 33 प्रतिशत वाले लोग जन्म के आधार पर भारी होते चले गये। कुंठित प्रतिभाओं ने पलायन करना शुरू कर दिया। विश्व पटल पर आज भारतवंशियों का दबदबा इसी प्रतिभा पलायन का नतीजा है जबकि देश के आन्तरिक हालात निरंतर खोखले होते जा रहे हैं। व्यवस्था से जुडे अनेक असक्षम लोगों के कन्धों पर देश का भार हिचकोलें खाने लगा है। इसी मध्य तुष्टीकरण का सुरक्षित हथियार भी सामने लाया गया। सरकारी तंत्र से जुडे लोगों को लालची, लोभी और स्वार्थी बनाने हेतु अनावश्यक वेतन वृध्दि के तोहफे दिये जाने लगे। सरकारी खजाने में जमा किये गये ईमानदार कर दाताओं के खून-पसीने को लुटाया जाने लगा। कभी इंक्रीमेन्ट के नाम पर तो कभी अतिरिक्त भत्ते के रूप में। बाद में तो इसे अधिकार मानकर वेतन बढाने के लिए बामपंथियों के लाल झंडों तले दबाव की रणनीतियां तय होने लगीं। कहीं हंसिया-हथौडा की गूंज उठती रही तो कहीं मजदूर कांग्रेस जैसे स्वरों को तीव्र किया जाता रहा। विरोध-प्रदर्शन के नाम पर सरकारी सम्पत्ति यानी राष्ट्रभक्त करदाताओं की भेटों को आग के हवाले करने जैसी घटनायें आम हो गई जिनमें नागरिक हितों तक को चिन्गारी दिखाई गई। इसी मध्य प्रारम्भ हुआ आवश्यकता से अधिक आपूर्ति का सिलसिला। वास्तविकता तो यह है एक परिवार की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धनराशि का निर्धारण किया जाना चाहिए। न्यूनतम से लेकर अधिकतम तक के मापदण्ड तय होना चाहिये। धनार्जन हेतु शारीरिक श्रम से लेकर मानसिक दक्षता तक में खर्च होने वाली ऊर्जा के पुनर्संकलन, कार्यरत व्यक्ति के परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति और उसके सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की भरपाई निश्चित रूप से की जाना चाहिये परन्तु मुफ्तखोरी, विलासता तथा भौतिक संसाधन जुटाने में सहयोग करना, निश्चय ही राष्ट्रद्रोह की परिधि में आता है। एक मानवीय काया के शारीरिक श्रम का मूल्य यदि 500 रुपये प्रतिदिन लगाया जाता है तो फिर मानसिक श्रम का मूल्य 5000 रुपये कदापि नहीं दिया जा सकता। दौनों की आधारभूत आवश्यकतायें समान हैं। भोजन, कपडा और मकान की जरूरतें थोडा बहुत ऊपर-नीचे हो सकतीं है जिसमें दो रोटी, दो कपडे और एक छत की ही तो जरूरी है। समान शिक्षा, समान चिकित्सा और समान व्यवस्था का जयघोष होते ही निजी व्यवस्था, निजी सुविधा और निजीकरण की धज्जियां उडना शुरु हो जायेंगीं। तब सरकारी स्कूलों, सरकारी अस्पतालों और सरकारी व्यवस्था पर खर्च होने वाली धनराशि का सदुपयोग ही नहीं होगा बल्कि समान अवसर की पारदर्शिता भी किलकारी मारने लगेगी। आवश्यकता से अधिक आय होने के कारण ही उसका उपयोग व्यक्तिगत संचय करने, विलासता के संसाधनों को जुटाने, धनशक्ति के अभिमान चूर होने और विभिन्न षडयंत्रों को मूर्त रूप देने जैसे कार्यो में होने लगता है। कहीं भौतिक संसाधनों के महल खडे होते हैं तो कहीं लग्जरी गाडियों की कतारें लगाई जातीं  हैं। कहीं कुत्ते के लिए एसी लगते हैं तो कहीं मुुनाफाखोरी के आसमान छूते दामों पर वस्तुयें खरीदकर टिप दिये जाने लगते हैं। दूसरी ओर देश की संवैधानिक व्यवस्था में स्वयंसेवी संस्था, स्व-सहायता समूह, कल्याणकारी संगठन जैसी घटकों की व्यवस्था है जिनमें से ज्यादातर तो हाथी के दांतों की कहावत को ही निरूपित करते देखे जा रहे हैं। इसी व्यवस्था का लाभ उठाकर विदेशी इशारे पर अनेक संगठन सक्रिय हो जाते हैं और मौलिक अधिकार, मानवाधिकार, निजिता का अधिकार सहित अनेक कानूनी पैंचेदगी का लाभ उठाने लगते हैं। देश की रचनात्मकता को तार-तार करने वाले इरादों को लेकर ऐसी ही अनेक संस्थायें धीरे-धीरे स्वयंभू संरक्षक बनकर वर्ग विशेष को बरगलाने लगतीं हैं। उनके आचरण, कार्य प्रणाली और योजनायें समय के साथ बदलकर अपना असली रंग दिखाने लगतीं हैं। ऐसे में अनेक सकारात्मक संस्थाओं के प्रयासों को अदृष्टिगत नहीं किया जा सकता परन्तु उनकी संख्या आनुपातिक रूप से कम होने के कारण उनकी सुगन्ध दूर तक नहीं पहुंच पाती जबकि अनेक संस्थाओं पर स्वार्थपूर्ति करने, आवश्यकता से अधिक प्राप्त हो रहे धन के खर्च करने तथा सरकारी दस्तावेजों की औपचारिकताओं की पूर्ति किये जाने के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं। अहमदाबाद में स्थापित भारतीय प्रबंधन संस्थान में भारी भरकम वेतन पाने वाले प्रोफेसर अनेक प्रोफेसर्स ने मिलकर एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स के नाम से एक संस्था सन 1999 में गठित की जिसमें त्रिलोचन शास्त्री, जगदीप एस, सुनील हांडा, अजीत रनांडे, देवनाथ तिरुपति, ब्रिज कोठारी, राजेश अग्रवाल, पंकज चन्द्र, पीआर शुक्ला, प्रेम पंगोतरा और सुदर्शन खन्ना शामिल थे। इस संस्था ने सन 1999 में ही देश की निर्वाचन प्रक्रिया, उसकी व्यवस्था और परिणामों की समीक्षा जैसे उद्देश्यों को लेकर चुनावी मैदान में उतरने वाले प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि, शिक्षा, सम्पत्ति आदि की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की। उस पर कानूनी जिरह, पक्ष-विपक्ष के तर्क और न्यायालय के रुख से याचिकाकर्ताओं की विजय हुई। इसके बाद से इस संस्था ने विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव का विश्लेषक बनकर स्थापित होने का प्रयास किया।  आख्या प्रस्तुत करने के बाद वह सुझाव देने की दिशा में भी कदम बढाने लगे। इससे भी आगे बढकर वह व्यवस्था के स्वरूप निर्धारण हेतु जबरजस्ती भागीदारी दर्ज करने लगी। पारदर्शिता के नाम पर निजिता को सार्वजनिक करने के प्रयास निरंतर आगे बढते चले गये। वर्तमान में निर्वाचन प्रक्रिया से जुडे फार्म 17सी को इन्टरनेट पर अपलोड कराने हेतु इसी संस्था ने एक बार फिर कानून के पैतरे आजमाने शुरु किये। निर्वाचन आयोग के अनुसार फार्म 17सी की कापी पोलिंग एजेन्ट को दी जाती है यदि इसे अपलोड कर दिया जायेगा तो अफरा-तफरी पैदा हो जायेगी। मतदान केन्द्रवार आंकडा सार्वजनिक मंच पर मौजूद होने के बाद आपसी झगडों का अनचाहा धरातल तैयार हो जायेगा। ऐसे में इस संभावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि कल कोई और संस्था विश्व कल्याण का मुखौटा ओढकर सेना, सीमा और सुरक्षा की बारीकियों को भी सार्वजनिक करने की मांग कर सकती है। राजनैतिक दल तो पहले भी देश की सेना से उनके शौर्य के सबूत मांग चुके हैं। अनेक छदम्मवेशधारी देश के खजाने से मिलने वाले भारी भरकम पैसों का उपयोग हाथी के दिखाने वाले कल्याणकारी दांत और खाने वाले षडयंत्रकारी दांतों बनने की निरंतर फिराक में रहते हैं जिनके मंसूबों पर समान व्यवस्था लागू करके ही पानी फेरा जा सकता है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।



Dr. Ravindra Arjariya

Accredited Journalist

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dr.ravindra.arjariya@gmail.com


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