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  देश में चुनावी सरगर्मियां तेज होने लगीं है। भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में अपने 60 प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी है। घोषित प्रत्याशियों वाली सीटों पर टिकिट की आशा में दौडभाग कर रहे पार्टी के अन्य नेताओं को निराशा मिलने के कारण आन्तरिक कलह की शुरूआत भी हो चुकी है। पार्टी में दल बदलकर आने वाले अनेक नेताओं ने अपनी उपेक्षा के कारण अप्रत्यक्ष रूप से अपने समर्थकों को किस्तों में भाजपा छोडने का निर्देश जारी कर दिया है ताकि पार्टी पर दबाव बनाया जा सके। ऐसे लोगों ने भाजपा का दामन किसी सैध्दान्तिक हृदय परिवर्तन के कारण नहीं थामा था और न ही भाजपा के आदर्शो को अंगीकार किया था बल्कि अह्म की पूर्ति तथा अतीत की पार्टी में हो रही उपेक्षा के कारण ही उसे छोडा था। ऐसे लोग स्वार्थपूर्ति के अवसरों के आधार पर ही व्यक्तिगत आदर्शों को अंगीकार करते हैं और जब लाभ के अवसर पूरे हो जाते हैं, तो पुन: कहीं और ठिकाना तलाशने लगते हैं। भारतीय राजनीति में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, महाराष्ट्र के उध्दव ठाकरे, मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे अनेक नाम इस बात के उदाहरण हैं कि स्वार्थपूर्ति की कीमत पर आदर्शों की चिता सजाकर, मर्यादाओं को तिलांजलि देकर और सिध्दान्तों को दफन करके उन्होंने अपनी निजी आस्था को ही स्थापित किया था। स्वार्थी नेता के साथ लाभ कमाने का नाता रखने वाले खास सिपाहसालारों की फौज का अपना निजी मत नहीं होता, वे तो केवल अपने नेताजी के साथ उनके जयकारे लगाने, भौतिक लाभ कमाने तथा विलासता के संसाधन जोडने में ही मगन रहते हैं। देश में समर्थकों की संख्या का इजाफा करने के लिए कानून तोडने वालों, अनियमिततायें करने वालों तथा मुनाफा कमाने के अनैतिक अवसर पाने की जुगाड में रहने वालों को संरक्षण देना अब आवश्यक हो गया है। ऐसा ही परिवर्तन नागरिकों की निजी राय की स्थापना के दौरान देखने को मिलने लगा है। मतदाता का रुख पार्टी की नीतियों, सिध्दान्तों या राष्ट्रव्यापी उपलब्धियों पर स्थापित न होकर निजी स्वार्थपूर्ति में सहायक रहने वाले, आडे वक्त में साथ देने वाले तथा सीधी पहुंच वाले नेताजी के पक्ष में ही होता है। भले ही वह नेताजी  किसी राष्ट्रविरोधी, संविधान विरोधी तथा विभाजनकारी मानसिकता को अप्रत्यक्ष रूप में संरक्षण देने वाली पार्टी के टिकिट पर ही चुनाव मैदान में क्यों न खडे हों। निजी स्वार्थपूर्ति के लिए देश के हितों की हत्या करना तो अब किसी नये फैशन की तरह लोकप्रिय होता जा रहा है। बडे नेताओं से लेकर उनके समर्थकों तक में आ चुकी इस विकृति का सीधा असर आम मतदाता पर पड रहा है। फर्जी राशनकार्ड बनवाने वाले नेताजी को ही पार्षद बनाने वालों के लिए भीड एकत्रित हो जाती है। अतिक्रमण वाली जमीन पर नक्शा पास करवाने से लेकर मकान बनवाने की मंजूरी दिलवाने वाले ज्यादातर लोग ही अब नगर निकायों में जनप्रतिनिधि के रूप में पहुंच रहे हैं। मध्य प्रदेश के मतदाता को जम्मू-कश्मीर के कोई मतलब नहीं है, विश्व मंच पर देश के बढते प्रभाव से उसे कोई सरोकार नहीं है और न ही उसे पाकिस्तान को बिना जंग किये भिखारी बना देने से कोई फर्क पडता है। ऐसे लोगों की सोच में केवल पैसा, पैसा और पैसा ही होता है ताकि वे पैसे से विलासता की वस्तुओं का अम्बार लगा सकें, आने वाली पीढियों को नकारा मानते हुए उनके भविष्य को सुरक्षित कर सकें और समाज को झुका सकें परिवार के रुतवे के सामने। ऐसी सोच के दौर में भाजपा को बहुत सोच समझकर अपने प्रत्याशी का चयन करना होगा। आयातित उम्मीदवार के स्थान पर क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं को ही मौका देना होगा। गुटबाजी से दूर हटकर निर्विवाद रहने वाले आदर्शवादी नये चेहरों को मौका देना भी हितकर हो सकता है। मध्य प्रदेश में शिवराज पर पुन: दाव लगाकर पार्टी ने एक बार फिर अपनी भूल की पुनावृत्ति की है। अतीत से सीख न लेकर दबाव के कारण किया गया समझौता भारी भी पड सकता है। सरकारी खजाने को लुटाकर मतदाताओं को रुझाने वाले मूलमंत्र का तिलिस्म तो कब का समाप्त हो चुका है। अक्सर शराबियों व्दारा दारू पिलाने वालों को ही गालियां देते देखा गया है। हरामखोरी की आदत डालना कदापि सुखद नहीं होता। तुष्टिकरण की नीति के तहत सहायता, सुविधा और संरक्षण वाली योजनाओं से केवल और केवल करदाताओं की खून-पसीने की कमाई का खुला दुरुपयोग ही होता हैं। निकट अतीत के चुनावों को देखें तो जिन स्थानों पर विपक्षी दलों के प्रत्याशी जीते हैं वहां पर उन दलों की जीत नहीं हुई है बल्कि भाजपा के स्थानीय प्रत्याशी की हार हुई है। पार्टी ने अह्म के सिंहासन पर बैठकर टिकटों का वितरण किया गया और पूर्व घोषित दु:खद परिणामों की परिणति सामने आयी। अभी देश के मतदाता पार्टी की नीतियों पर नहीं बल्कि प्रत्याशियों की छवि पर मतदान करते हैं। ऐसे में क्षेत्र के दागदार, कुख्यात और स्वार्थी लोगों को जब कमल निशान मिल जाता है तो फिर उनका विकल्प बनने वाले दल को ही भाजपा प्रत्याशी के विरोधी वोट स्वत: ही मिल जाते हैं। इसे परिवर्तन की आंधी या मतदाताओं की सत्ता बदलने की मानसिता के रुप में परिभाषित करना बेमानी ही होगा। प्रत्याशी के निजी विरोध के कारण हारती है पार्टी। इस बार चुनाव घोषित होने के पहले ही भाजपा ने अनेक प्रत्याशी घोषित करके उन कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करने की कोशिश की है जो स्वयं की शतप्रतिशत जीत का दावा करते रहे हैं। अभी चुनावी दुंदुभी बजने में वक्त है, तब तक का समय घोषित प्रत्याशियों को पार्टी की अन्तर्कलह मिटाने, मतदाताओं को रिझाने तथा स्वयं की व्यक्तिगत छवि से पार्टी की साख स्थापित करने के लिए दिया गया है। निर्वाचन की घोषणा होते ही प्रमाणित समीक्षा के प्रतिकूल होने पर टिकिट कटने की संभावनाओं के संकेत भी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर दिये हैं। ऐसे में घोषित प्रत्याशियों को ज्यादा परिश्रम करके अपनी प्रतिभा का खुला प्रदर्शन करना होगा ताकि वे नेता होने की सभी कसौटियों पर खरा उतर सकें। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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