उत्तराखंड भाग 3
रिंगाल हमारी संस्कृति के साथ वर्षों से जुड़ा हुआ है, रिंगाल बांस की ही एक प्रजाति है। पहाड़ में इसे बौना बांस भी कहा जाता है।
सीमांत जनपद चमोली के किरूली गांव के 38 वर्षीय बेजोड हस्तशिल्पी श्री राजेन्द्र बडवाल ने रिंगाल से जो मॉडल तैयार किये हैं, वे अपने आप में अद्भुत व अकल्पनीय हैं।
राजेन्द्र बड़वाल को ये कला अपने 65 वर्षीय पिता श्री दरमानी लाल बड़वाल से सीखने को मिली। बड़वाल परिवार का ये हुनर आज देश विदेशों की ओर रुख कर चुका है। लगभग 150 से ज्यादा लोगों को इस कला में निपुण कर बड़वाल परिवार ने स्वरोजगार की एक अनोखी अलख पहाड़ में जगाई है।
राजेन्द्र कहते हैं कि वो रिंगाल से जो कुछ भी बनाना चाहते हैं, बना देते हैं। इस कला का श्रेय वो अपने पिता तथा श्री बद्री विशाल को देते हैं।
बड़वाल परिवार आज रिंगाल से देव छंतोली, ढोल दमाऊ, हुडका, लैंप शेड, लालटेन, गैस, टोकरी, फूलदान, पक्षियों का घोंसला, पेन होल्डर, फुलारी टोकरी, चाय ट्रे, नमकीन ट्रे, डस्टबिन, फूलदान, टोपी, पानी की बोतल, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री तथा पशुपतिनाथ जी के मंदिर सहित न जाने कितनी आकृतियां बना चुके हैं।
इस कला को सीख कर लघु उद्योग का स्वरूप दें तथा उत्तराखण्ड की संस्कृति तथा परम्परा को पूरे विश्व में प्रवाहित करें
रिंगाल हमारी संस्कृति के साथ वर्षों से जुड़ा हुआ है, रिंगाल बांस की ही एक प्रजाति है। पहाड़ में इसे बौना बांस भी कहा जाता है।
सीमांत जनपद चमोली के किरूली गांव के 38 वर्षीय बेजोड हस्तशिल्पी श्री राजेन्द्र बडवाल ने रिंगाल से जो मॉडल तैयार किये हैं, वे अपने आप में अद्भुत व अकल्पनीय हैं।
राजेन्द्र बड़वाल को ये कला अपने 65 वर्षीय पिता श्री दरमानी लाल बड़वाल से सीखने को मिली। बड़वाल परिवार का ये हुनर आज देश विदेशों की ओर रुख कर चुका है। लगभग 150 से ज्यादा लोगों को इस कला में निपुण कर बड़वाल परिवार ने स्वरोजगार की एक अनोखी अलख पहाड़ में जगाई है।
राजेन्द्र कहते हैं कि वो रिंगाल से जो कुछ भी बनाना चाहते हैं, बना देते हैं। इस कला का श्रेय वो अपने पिता तथा श्री बद्री विशाल को देते हैं।
बड़वाल परिवार आज रिंगाल से देव छंतोली, ढोल दमाऊ, हुडका, लैंप शेड, लालटेन, गैस, टोकरी, फूलदान, पक्षियों का घोंसला, पेन होल्डर, फुलारी टोकरी, चाय ट्रे, नमकीन ट्रे, डस्टबिन, फूलदान, टोपी, पानी की बोतल, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री तथा पशुपतिनाथ जी के मंदिर सहित न जाने कितनी आकृतियां बना चुके हैं।
इस कला को सीख कर लघु उद्योग का स्वरूप दें तथा उत्तराखण्ड की संस्कृति तथा परम्परा को पूरे विश्व में प्रवाहित करें
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