देहरादून;
राम से बड़ा राम का नाम , ये जाना सबसे पहले महर्षि बाल्मीकि ने–-
राम से बड़ा राम का नाम , ये जाना सबसे पहले महर्षि बाल्मीकि ने–-
मुख्यमंत्री
श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने प्रदेशवासियों को महर्षि वाल्मीकि जयंती की
शुभकामनाएं दी है। वाल्मीकि जयंती की पूर्व संध्या पर जारी अपने संदेश में
मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने कहा कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण
जैसी कालजयी रचना के माध्यम से विश्व को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के
चरित्र से परिचित कराया तथा रामायण के माध्यम से भारतीय जीवन पद्धति तथा
सामाजिक संबंधो का आदर्श चित्रण प्रस्तुत किया।
मुख्यमंत्री ने
कहा कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा महान ग्रन्थ रामायण के माध्यम से दी गई
त्याग, समरसता, सद्भाव तथा मानवता जैसे नैतिक मूल्यों की शिक्षा आज पहले से
कहीं अधिक प्रासंगिक है। हमें महर्षि वाल्मीकि की शिक्षाओं को अपने
व्यवहार में लाने का संकल्प लेना होगा।
उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये।
अपने महाकाव्य "रामायण" में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य,चन्द्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे।
अपने वनवास काल के मध्य "राम" वाल्मीकि जी के आश्रम में भी गये थे।
देखत बन सर सैल सुहाए। वाल्मीक आश्रम प्रभु आए॥
तथा जब "राम" ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया ।तब महर्षि वाल्मीक जी ने ही सीता को आसरा दिया था।
उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि जी को "राम" के जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान था। उन्होने विष्णु को दिये श्राप को आधार मान कर अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की।
महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो द्रौपदी यज्ञ रखती है,जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना जरूरी था और कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी पर यज्ञ सफल नहीं होता तो कृष्ण के कहने पर सभी भगवान वाल्मीकि जी से प्रार्थना करते हैं। जब वाल्मीकि जी वहां प्रकट होते हैं तो शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है। इस घटना को कबीर ने भी स्पष्ट किया है "सुपच रूप धार सतगुरु जी आए। पांडों के यज्ञ में शंख बजाए।"
आदि कवि वाल्मीकि
वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए। वे कोई ब्राह्मण नही थे, एक बार भगवान वाल्मीकि एक क्रोंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि विष्णु ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर वाल्मीकि जी की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
- यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'
उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये।
अपने महाकाव्य "रामायण" में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य,चन्द्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे।
अपने वनवास काल के मध्य "राम" वाल्मीकि जी के आश्रम में भी गये थे।
देखत बन सर सैल सुहाए। वाल्मीक आश्रम प्रभु आए॥
तथा जब "राम" ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया ।तब महर्षि वाल्मीक जी ने ही सीता को आसरा दिया था।
उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि जी को "राम" के जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान था। उन्होने विष्णु को दिये श्राप को आधार मान कर अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की।
जीवन परिचय
आदिकवि वाल्मीकि के जन्म होने का कहीं भी कोई विशेष प्रमाण नहीं मिलता है। सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है वो भी वाल्मीकि नाम से ही। रामचरित्र मानस के अनुसार जब राम वाल्मीकि आश्रम आए थे तो वो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था "तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा।" अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हो। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो द्रौपदी यज्ञ रखती है,जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना जरूरी था और कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी पर यज्ञ सफल नहीं होता तो कृष्ण के कहने पर सभी भगवान वाल्मीकि जी से प्रार्थना करते हैं। जब वाल्मीकि जी वहां प्रकट होते हैं तो शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है। इस घटना को कबीर ने भी स्पष्ट किया है "सुपच रूप धार सतगुरु जी आए। पांडों के यज्ञ में शंख बजाए।"
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