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आधुनिक परिवेश में जीवन की प्रत्याशायें निरंतर बढती ही जा रहीं है। उपकरणों पर आश्रित होती सोच ने मनुष्य को प्रकृति से दूर करना शुरू कर दिया है। संसाधनों की भीड एकत्रित करने वाले अपनी आय का एक बडा भाग विलासता की वस्तुओं के रखरखाव पर खर्च कर रहे हैं। सार्वजनिक सुविधाओं के उपयोग करने वालों की संख्या में निरंतर कमी आती जा रही है। व्यक्तिगत साधनों का प्रचलन तीव्रगामी हो चला है। ऐसे में सम्पन्नता की देवतक बनी वस्तुओं का उत्पादन जहां अनियंत्रित होकर बढ रहा है वहीं उनकी मरम्मत में भी समय और धन दौनों का ही ह्रास हो रहा हैं। साधन जुटाने वाला स्वयं उनका पूरी तरह उपयोग कर पाता हो, यह कहना भी मुश्किल है। तो फिर इस तरह की आपाधापी को नाटकीय मंचन कहना

                                                                                                      डा. रवीन्द्र अरजरिया 

ज्यादा समाचीन होगा। यह सब केवल दर्शन और दार्शनिकता तक ही सीमित होकर रह गया है। वास्तविक जीवन में समाज के निर्धारित और अनिर्धारित मापदण्डों के मकडजाल में फंसा व्यक्ति आत्मा के भान को त्याग कर केवल शरीर बनकर रह गया है। भौतिक वस्तुओं की भीड जब जोड ली है, तो फिर उसकी मरम्मत का दायित्व भी तो उठाना ही पडेगा। अन्यथा आदत बन चुकी स्थितियों के बिना जीने की कल्पना ही सिहरन पैदा कर देगी। विचारों की गति अपने पडाव तय कर ही थी कि तभी कालबेल का मधुर संगीत गूजने लगा। दरवाज खोला तो सामने इलैक्ट्रानिक उपकरणों के महारथी रामस्वरूप विश्वकर्मा जी अपनी चिरपरिचित मस्कुराहट के साथ मौजूद थे। अभिवादन की औपचारिकताओं को पूरा किया। एक लम्बे समय बाद उन्हें सामने पाकर अतीत की स्मृतियां ताजा हो गई। घटना 90 के दशक ही है जब खजुराहो में होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय नृत्य समारोह के उद्घाटन की कवरेज हेतु हम यूनिट सहित पहुंचे थे। उस समय की सर्वाधिक महात्वपूर्ण यूमैटिक कैमरा यूनिट प्री-टेस्टिंग के दौरान खराब हो गई। सभी के हाथ पैर फूल गये। अगले दिन दूरदर्शन के सभी चैनलों पर उसका प्रसारण सुनिश्चित था। यूनिट कार में रखी गई। कैमरामैन, सहायक को साथ लेकर हम एम्बेस्टर कार से छतरपुर के लिए निकल पडे। लक्ष्य था महल रोड पर स्थित विश्वकर्मा इलैक्ट्रानिक्स। वहां पहुंचते ही हमारे पुराने मित्र रामस्वरूप जी ने आत्मीय स्वागत किया। कैमरामैन ने यूनिट की समस्या बताई। उन्होंने अपनी छोटी सी दुकान की पुरानी सी मेज को झाडपोंछ कर साफ किया। यूनिट रखी और बिना समय गंवाये काम पर लग गये। एक घंटे की खासी मसक्कत के बाद समस्या का निदान हो गया। सभी सहयोगियों की मुस्कुराहट लौट आई। छोटी सी जगह पर उस समय के हाई टेक सिस्टम को दुरस्त करना किसी तत्कालीन परिस्थितियों में किसी आश्चर्य से कम नहीं था। इस घटना ने यह विश्वास दिला दिया कि बिना तकनीकी शिक्षा ग्रहण किये केवल व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर महारत हासिल की जा सकती है। कुछ और यादगार पल मूर्तरूप लेते उसके पहले ही रामस्वरूप जी ने हमें वर्तमान का आभाष कराते हुए कुशलक्षेम पूछने-बताने का क्रम प्रारम्भ कर दिया। हमने उनकी व्यवसायिक विधा पर चर्चा करते हुए इसी दिशा में चल रहे विचारों को अगले पडाव की ओर गतिशील कर दिया। तेजी से बदल रही तकनीक को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान एक तकनीक पूरी तरह से पांव फैला ही नहीं पाती कि दूसरी तकनीक की दस्तक शरू हो जाती है। पिछले दो दशक में बदलाव की बयार ने आंधी का रूप ले लिया है। ग्रामोफोन से लेकर वाईफाई तक के रास्ते में कैसेट, सीडी, डीवीडी, कार्ड, चिप जैसे अनेक कारकों ने मूर्त रूप लिया। हाथ से झलने वाले पंखे ने सेंटर एसी के रूप में कायाकल्प कर लिया है। इस मध्य कार्यालयों में मनुष्यों द्वारा खींचा जाने वाला झूमर, विद्युत पंखा, कूलर, टुल्लूयुक्त कूलर, एसी और अब सेंटर एसी के स्वरूप सामने आ गये हैं। इसी तरह बदलाव अनेक क्षेत्रों में भी आ रहे हैं। तकनीक विकास की व्याख्या को बीच में ही रोकते हुए हमने उनसे बदलती तकनीक के मध्य उपकरणों की मरम्मत में आने वाली समस्याओं को स्पष्ट करने को कहा। 

तकनीक के बदलाव को सकारात्मक निरूपित करते हुए उन्होंने कहा कि तकनीकी क्षेत्र में हो रहा है गागर में सागर भरने का प्रयास। विशाल के स्थान पर सूक्ष्म और अब सूक्ष्म के स्थान पर सूक्ष्मतर होने की प्रक्रिया चल रही है। भारी भरकम उपकरणों का स्थान नैनो वस्तुओं ने ले लिया है। ऐसे में तेजी से हो रहे बदलाव में उपकरणों की मरम्मत बेहद कठिन होती जा रही है। अनेक कम्पनियों ने तो अपने उत्पादनों में मरम्मत की गूंजाइश ही नहीं छोडी है। मगर इण्डियन जुगाड टेक्नोलाजी हमें अपने व्यवसाय को निरंतर रखने में मदद कर ही है। भारत की यह पुरातन तकनीक कभी भी असफल नहीं हो सकती। 

आवश्यकता है तो केवल जुगाड के विकल्प ढूंढनें में मानसिक एकाग्रता, व्यक्तिगत अनुभव और लक्ष्य भेदन हेतु संकल्प शक्ति की। चर्चा चल ही रही थी कि आगन्तुक मेहमान के स्वागत में नौकर ने मेज पर चाय और स्वल्पाहार सजाना शुरू कर दिया। व्यवधान उत्पन्न हुआ परन्तु तब तक विचारों के प्रवाह का तकनीकी पक्ष काफी हद तक संतुष्ट हो चुका था। सो बातचीत को विराम देकर हमने भोज्य पदार्थों को सम्मान देना शुरू कर दिया। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।

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