आधुनिक
परिवेश में जीवन की प्रत्याशायें निरंतर बढती ही जा रहीं है। उपकरणों पर
आश्रित होती सोच ने मनुष्य को प्रकृति से दूर करना शुरू कर दिया है।
संसाधनों की भीड एकत्रित करने वाले अपनी आय का एक बडा भाग विलासता की
वस्तुओं के रखरखाव पर खर्च कर रहे हैं। सार्वजनिक सुविधाओं के उपयोग करने
वालों की संख्या में निरंतर कमी आती जा रही है। व्यक्तिगत साधनों का प्रचलन
तीव्रगामी हो चला है। ऐसे में सम्पन्नता की देवतक बनी वस्तुओं का उत्पादन
जहां अनियंत्रित होकर बढ रहा है वहीं उनकी मरम्मत में भी समय और धन दौनों
का ही ह्रास हो रहा हैं। साधन जुटाने वाला स्वयं उनका पूरी तरह उपयोग कर
पाता हो, यह कहना भी मुश्किल है। तो फिर इस तरह की आपाधापी को नाटकीय मंचन
कहना
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