18 अगस्त,1999 पर्वतीय गांधी इन्द्रमणि बडोनी जी की पुण्य तिथि पर विशेष
उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में इन्द्रमणि बडोनी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिया जायेगा। 1994 के राज्य आन्दो्लन के वे सूत्रधार थे। 2 अगस्त 1994 को पौड़ी प्रेक्षागृह के सामने आमरण अनशन पर बैठ कर उन्होंने राजनीतिक हलकों में खलबली मचा दी थी
7 अगस्त 1994 को उन्हें जबरन मेरठ अस्पताल में भरती करवा दिया गया और उसके बाद सख्त पहरे में नई दिल्ली स्थित आयुर्विज्ञान संस्थान में। जनता के भारी दबाव पर 30वें दिन उन्होंने अनशन समाप्त किया। इस बीच आन्दोलन पूरे उत्तराखंड में फैल चुका था। उत्तराखंड की सम्पूर्ण जनता अपने महानायक के पीछे लामबन्द हो गयी। बीबीसी ने तब कहा था, ‘‘यदि आपने जीवित एवं चलते-फिरते गांधी को देखना है तो आप उत्तराखंड की धरती पर चले जायें। वहाँ गांधी आज भी अपनी उसी अहिंसक अन्दाज में विराट जनांदोलनों का नेतृत्व कर रहा है।
1 सितम्बर 1994 को खटीमा और 2 सितम्बर को मसूरी के लोमहर्षक हत्याकांडों से पूरा देश दहल उठा था। 15 सितम्बर को शहीदों को श्रद्धांजलि देने हेतु मसूरी कूच किया गया, जिसमें पुलिस ने बाटा घाट में आन्दोलनकारियों को दो तरफा घेर कर लहूलुहान कर दिया। दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया। बडोनी को जोगीवाला में ही गिरफ्तार कर सहारनपुर जेल भेजा गया। इस दमन की सर्वत्र निन्दा हुई। मुजफ्फरनगर के जघन्य कांड की सूचना मिलने के बाद 2 अक्टूबर की दिल्ली रैली में उत्तेजना फैल गई। मंच पर अराजक तत्वों के पथराव से बडोनी जी चोटिल हो गये थे। मगर ‘उत्तराखंड के इस गांधी’ ने उफ तक नहीं की और यूपी हाऊस आते ही फिर उत्तराखंड के लिए चिन्तित हो गये। उन तूफानी दिनों में आन्दोलनकारी जगह-जगह अनशन कर रहे थे, धरनों पर बैठे थे और विराट जलूसों के रूप में सड़कों पर निकल पड़ते थे। इनमें सबसे आगे चल रहा होता था दुबला-पतला, लम्बी बेतरतीब दाढ़ी वाला शख्स- इन्द्रमणि बडोनी। अदम्य जिजीविषा एवं संघर्ष शक्ति ने उन्हें इतना असाधारण बना दिया था कि बड़े से बड़ा नेता उनके सामने बौना लगने लगा।
इन्द्रमणि बडोनी का जन्म 24 दिसम्बर 1925 को तत्कालीन टिहरी रियासत के जखोली ब्लॉक के अखोड़ी गाँव में पं. सुरेशानन्द बडोनी के घर हुआ। उस समय सामन्ती मकड़जाल में छटपटाते टिहरी रियासत में बच्चों को पढ़ने से हतोत्साहित किया जाता था। टिहरी के कम ही लोग लेज तक की पढ़ाई कर पाते थे। बडोनी ने गाँव से शुरू कर नैनीताल और देहरादून में शिक्षा प्राप्त की। 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह सुरजी देवी से हुआ, जो राज्य बन जाने के बाद भी मुनिकीरेती के अपने जर्जर घर में उपेक्षित व अक्सर अकेली रहती हैं। जीवन के प्रारंभिक काल से बडोनी विद्रोही प्रकृति के थे। उन दिनों टिहरी रियासत में प्रवेश करने के लिए चवन्नी टैक्स देना होता था। एक बार जब बालक बडोनी अपने साथियों के साथ नैनीताल से आते हुए पौड़ी से मन्दाकिनी पार कर तिलवाड़ा के रास्ते टिहरी में प्रवेश कर रहे थे तो उन्होंने चवन्नी टैक्स देने से इंकार कर दिया। उन्हें गिरफ्तार कर स्थानीय मालगुजार के समक्ष पेश किया तो वहाँ भी टैक्स देने से बेहतर उन्होंने जेल जाना समझा। बहरहाल उस भले मालगुजार ने अपनी जेब से चवन्नी जमा कर उस समय उन्हें जेल जाने से बचा लिया। डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून से स्नातक की डिग्री लेने के बाद वे आजीविका की तलाश में बम्बई चले गये। लेकिन स्वास्थ्य खराब होने की वजह से उन्हें वापस गाँव लौटना पड़ा। तब उन्होंने अखोड़ी गाँव और जखोली ब्लाॅक को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया। सन् 1953 में गांधी जी की शिष्या मीरा बेन टिहरी के गाँवों के भ्रमण पर थीं। जब अखोड़ी पहुँच कर उन्होंने किसी पढ़े-लिखे आदमी से ग्रामोत्थान की बात करनी चाही तो गाँव में बडोनी जी के अलावा कोई पढ़ा-लिखा नहीं था और वे भी उस समय पहाड़ की चोटियों की तरफ (छानियों में) मवेशियों के साथ प्रवास पर थे। उन्हें वहाँ से बुलवाया गया। मीरा बेन की प्रेरणा से ही इन्द्रमणि बडोनी सामाजिक कार्यों में तन-मन से समर्पित हुए। 1961 में वे गाँव के प्रधान बने और फिर जखोली विकास खंड के प्रमुख। बाद में उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान सभा में तीन बार देव प्रयाग क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। 1977 के विधान सभा चुनाव में निर्दलीय लड़ते हुए उन्होंने कांग्रेस और जनता पार्टी प्रत्याशियों की जमानतें जब्त करवायीं। पर्वतीय विकास परिषद के वे उपाध्यक्ष रहे। उस दौरान उनके विधानसभा में दिये गये व्याख्यान आज भी समसामयिक हैं। वे सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पेयजल योजनाओं पर बोलते हुए व्यक्ति के विकास पर भी जोर देते थे। उत्तराखंड में विद्यालयों का सबसे ज्यादा उच्चीकरण उसी दौर में हुआ।
पहाड़ों से उन्हें बेहद लगाव था। आज सहस्त्रताल, पवाँलीकांठा और खतलिंग ग्लेशियर दुनिया भर से ट्रेकिंग के शौकीनों को खींच रहे हैं, पर इनकी सर्वप्रथम यात्राएँ बडोनी जी द्वारा ही शुरू की गई। उनके साथ इन तीनों स्थलों को प्रकाश में लाने वाले सुरेन्द्र सिंह पांगती तब टिहरी के जिलाधिकारी थे। पहाड़ की संस्कृति और परम्पराओं से उनका गहरा लगाव था। मलेथा की गूल और वीर माधो सिंह भंडारी की लोक गाथाओं का मंचन उन्होंने दिल्ली और बम्बई तक किया। दिल्ली में उनके द्वारा मंचित पांडव नृत्य को देख कर तत्कालीन प्रधान मंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भाव-विभोर हो कर बडोनी जी के साथ ही थिरकने लगे। दिल्ली प्रवास के उन्हीं दिनों में वे कॉमरेड पी.सी. जोशी के सम्पर्क में आये और पृथक उत्तराखंड राज्य के पैरोकार बन गये। 1980 में वे उत्तराखंड क्रांति दल के सदस्य बन गये। वन अधिनियम के विरोध में उन्होंने आंन्दोलन का नेतृत्व किया और पेड़ों के कारण रुके पड़े विकास कार्यों को खुद पेड़ काट कर हरी झंडी दी। इस आंदोलन में हजारों लोगों पर वर्षों मुकदमे चलते रहे। 1988 में तवाघाट से देहरादून तक की उन्होंने 105 दिनों की पैदल जन संपर्क यात्रा की। इस यात्रा में उन्होंने दो हजार से ज्यादा गाँवों और शहरों को छुआ और पृथक राज्य की अवधारणा को घर-घर तक पहुँचा दिया। 1989 में उक्रांद कार्यकर्ताओं के आग्रह पर उन्होंने सांसद का चुनाव लड़ा। जिस दिन चुनाव का पर्चा भरा गया, बडोनी जी की जेब में मात्र एक रुपया था। संसाधनों के घोर अभाव के बावजूद बडोनी जी दस हजार से भी कम वोटों से हारे।
बडोनी जी की राजनीतिक यात्राओं का सिलसिला थमा नहीं। आज वे मुनिकी रेती में होते थे तो दूसरे दिन पिथौरागढ़, तीसरे दिन उनकी बैठक नैनीताल में होती तो चौथे दिन धूमाकोट। अपनी बात कहने का उनका ढंग निराला था। गम्भीर और गूढ़ विषयों पर उनकी पकड़ थी, उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे के बारे में उन्हें जानकारी थी और वे बगैर लाग-लपेट के सीधी-सादी भाषा में अपनी बात कह देते थे। उनको सुनने के लिए लोग घंटों इन्तजार करते थे और वे लोगों को एक जुनून दे देते थे। उत्तराखंड के सपने को हकीकत में बदलने के लिए इन्द्रमणि बडोनी ने तिल-तिल जलकर अपने को होम किया है। 1992 की मकर संक्रांति पर बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में उन्होंने उत्तराखंड क्रांति दल का संकल्प जन-जन में वितरित किया। उसी वर्ष गैरसैण को उत्तराखंड की राजधानी घोषित कर चन्द्रनगर गैरसैण के नाम से वहाँ शिलान्यास कर दिया।
उत्तराखंड के इस सच्चे सपूत ने 72 वर्ष की उम्र में 1994 में राज्य निर्माण की निर्णायक लड़ाई लड़ी, जिसमें उनके अब तक के किये परिश्रम का प्रतिफल जनता के विशाल सहयोग के रूप में मिला। उस ऐतिहासिक जनान्दोलन के बाद भी 1994 से अगस्त 1999 तक बडोनी जी उत्तराखंड राज्य के लिए जूझते रहे। मगर अनवरत यात्राओं और अनियमित खान-पान से कृषकाय देह का यह वृद्ध बीमार रहने लगा। देहरादून के अस्पतालों, पी.जी.आई. चंडीगढ़ एवं हिमालयन इंस्टीट्यूट में इलाज कराते हुए भी मरणासन्न बडोनी जी हमेशा उत्तराखंड की बात करते थे। गुर्दों के खराब हो जाने से दो-चार बार के डायलिसिस के लिए भी उनके पास धन का अभाव था। 18 अगस्त 1999 को उत्तराखंड का यह सपूत अनंत यात्रा की तरफ महाप्रयाण कर गया।
उतरराखण्ड के कोने- कोने में अलख जगाकर वर्षो से चली आ रही राज्य प्राप्ति की मां को जिस व्यक्ति ने अभिव्यक्ति प्रदान कर प्रत्येक पहाड़ी को आज दो- अभी दो का नारा लगाने से मुठ्टियां तानकर सरकार को ललकारने का माद्दा प्रदान किया वे कोई और नहीं स्व. इन्द्रमणी बड़ोनी जी थे। उन्होने पहाड़ की मजबूरियों को नजदीक से देखा था। पहाड़ के आदमी के पलायन की मजबूरी पहाड़ी बुजुर्गो के आंखों का खालीपन व महिलाओं की जिंदगी का सूनापन उन्हें हमेशा विचलित करता था। 23 दिसम्बर 1924 को टिहरी जिलें के जखोली विकासखण्ड के अखोड़ी गांव में सुरेशादंद बडोनी जी केघर जन्म लेने वाले इन्द्रमणी बडोनी जी की राजनैतिक कार्यशैली ने उन्हें उत्तराखंण्ड के घर- घर में एक अलग पहचान दिलायी। आज के चाटुकारिता व तड़क- भड़क से भरे राजनैतिक जीवन से अलग उन्होंने हमेशा फक्कड़ जीवन जिया। उत्तराखण्ड के गांधीजी कहे जाने वाले स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी देवप्रयाग विधान सभी क्षेत्र से तीन बार विधायक रह चुके है जहां से ये ऋषिकेश आकर रहने लगे थे । इन्द्रमणि बड़ोनी सन् 1967 में पहली बार निर्दलीय रूप से विधायक चुने गये बाद में इन्होने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। 1969 में ये कांग्रेस के टिकट पर पुन विधान सभा में पहुंचे। लेकिन कुछ समय बाद इन्होने कांग्रेस की सदस्यता छोड़ छी1977 में ये उ प्र विधान सभी के लिए तीसरी बाद विधायक चुने गये। 1973 में पर्वतीय राज्य परिषद में माध्यम से भी बड़ोनी जी पृथक राज्य के लिए सक्रिय रहे। पृथक राज्य के प्रति क्षेत्रीय जनता में जागृति पैदा करने के लिए इन्होने तवाधाट से देहरादून तक लगभग 2000 किमी की पदयात्रा भी की थी। 1979उत्तराखण्ड क्रांति दल का जन्म होने के बाद बडोनी जी ने उक्रांद की सदस्यता गंहण कर ये जीवन की अंतिम क्षणों तक उक्रांद मे बने रहे। उत्तराखण्ड क्रांति दल के नेतृत्व में राज्य आंदोलन अपनी मंजिल की ओर अग्रसर था ही कि 1994 के मध्य दौर में छात्र, जबरदस्ती लादे जा रहे 27 प्रतिशत आरक्षण को दुरस्त करने के संघर्ष में सड़को पर कुछ पड़े छात्र- नौजवान मजदूर- किसान के उस दौर में हो रहे संघर्षो ने पृथक राज्य आंदोलन को एक नई ऊर्जा प्रदान की। कर्मचारी, व्यापारी, भूतपूर्व सैनिक ही नहीं बुद्धिजीवी भी संघर्ष में कूद पडा1। मातृशकित की ऐतिहासिक भागीदारी ने इस आंदोलन को देश ही नहीं बल्कि दुनिया के लोकतांत्रिक संघर्षो के इतिहास में एक मिशाल के रूप में स्थापित कर दिया। राज्य आंदोलन की चिंगारी ज्वाला बनकर जब सम्पूर्ण उत्तराखंड मे घर-घर तक फैली तो दिल्ली व लखनऊ की सरकारें सहम गयी। जन आंदोलन पर हुए कायरतापूर्ण हमलों तथा पहाड़ के सम्मान पर की गयी बहसी चोट पर लिमिलाये उत्तराखण्डी जब आक्रोशित होकर सड़कों पर उतरे तो बडोनी जी ने किसी भी अनहोनी के हाने से पहले जनता के आकोश को एक पैनी धार देकर उसे राज्य प्राप्ति की आर- पार की लड़ाई में बदल दिया। यह उनका कुशल नेतृत्व ही था कि जनता जवाब में प्रतिहिंसा पर नहीं उतरी और लोकतांत्रिक मार्यादाओं के तहत शांतिपूर्ण संघर्ष करती रही अंतत: राज्य प्राप्त करने में सफल हुई।42 से अधिक शहादतें होने, मातृशक्ति का अपमान सहने के बावजूद आंदोलन अहिंसा के मार्ग से विचलित नहीं हुआ। ये वह तथ्य व सच्चाईयां हैं जिन्होंने इन्द्रमणी बडोनी को पर्वतीय गांधी का दर्जा दिया
उत्तराखंड राज्य का निर्माण एक बड़े जन आंदोलन के रूप में हुआ है जिसमें उत्तराखंड के हर वर्ग में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उत्तराखंड के गांधी के नाम से मशहूर इंद्रमणि बडोनी ने इस पूरे जनांदोलन को एक दिशा दी। आज उत्तराखंड अपने प्रणेता इंद्रमणी बडोनी की पुण्यतिथि को संस्कृति उत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। 24 दिसम्बर, 1925 को तत्कालीन टिहरी रियासत के ज़खोली ब्लॉक के अखोडी गांव में जन्में इंद्रमणि बडोनी जी का जीवन बचपन से ही संघर्षशील रहा। बडोनी की प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई और अपनी माध्यमिक व उच्च शिक्षा के लिए नैनीताल और देहरादून चले गये। शिक्षा प्राप्ति के बाद अल्पायु 19 वर्ष में ही उनका विवाह सुरजी देवी से हो गया।
इसके बाद बडोनी जी ने अंग्रेजों की हुकूमत के दौरान राजशाही के चवन्नी टैक्स के खिलाफ आन्दोनल शुरू किया था। अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष में उतरने के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। लेकिन आजादी के बाद कामरेड पीसी जोशी के सम्पर्क में आने के बाद वह पूरी तरह राजनीति में सक्रिय हुए। इंद्रमणि बडोनी जी के जीवन में प्रधान से ब्लॉक प्रमुख और तीन बार देवप्रयाग के विधायक तक का सफर काफी संघर्षमय रहा।
वर्ष 1957 में राजपथ पर गणतंत्र दिवस के मौके पर उन्होंने केदार नृत्य का ऐसा समा बांधा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी उनके साथ थिरक उठे। देवभूमि भ्रमण के दौरान उन्होंने ही भिलंगना नदी के उद्गम स्थल खतलिंग ग्लेशियर को खोजा था। उनका सपना पहाड़ को आत्मनिर्भर राज्य बनाने का था और उन्ही के प्रयासों से गंगी में दुर्लभ औषधियुक्त जड़ी-बूटियों की बागवानी प्रारम्भ हुई। उनका सादा जीवन देवभूमि के संस्कारों का ही जीता-जागता नमूना था। वे चाहते थे कि पहाडों को यहां की भौगोलिक परिस्थिति व विशिष्ट सांस्कृतिक जीवन शैली के अनुरुप विकसित किया जाए। अपनी संस्कृति के प्रति भी उनके मन में अगाध प्रेम था।
अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने स्व. इन्द्रमणि बडोनी को पहाड़ के गांधी की उपाधि दी थी। वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा था कि उत्तराखण्ड आंदोलन के सूत्रधार इन्द्रमणि बडोनी की आंदोलन में; उनकरी भूमिका वैसी ही थी जैसी आजादी के संघर्ष के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मा गॉधी ने निभायी थी। राज्य आंदोलन में लगातार सक्रिय रहने से उनका स्वास्थ्य गिरता गया और इंद्रमणि बडोनी जी आज ही के दिन 18 अगस्त 1999 को 72 वर्ष की आयु में को दुनिया को अलविदा कह गए। उन्होंने अपने जीवन काल के दौरान उत्तराखंड राज्य में आंदोलन की अलख जागाई और वर्ष 1994 से 1999 तक व्यापक संघर्ष किया। हालांकि, जो सपना इंद्रमणि बडोनी ने देखा था चंद सालों में उत्तराखंड अपने उस मूल उद्देश्य से भटक गया। जो सपने राज्य निर्माण के समय पर थे वो आज भी अधूरे हैं। पहाड़ आज भी बेरोजगारी और पलायन का शिकार है और पहाड़वासी बस विकास की राह देख रहे हैं।
स्वर्गीय इन्द्रमणि बडोनी, ये वो नाम है जो उत्तराखंड की आत्मा में बसा है। आज अगर आप उत्तराखंड में एक अलग राज्य की हवा को महसूस कर रहे हैं तो ये इस तूफान की वजह से हो सका। 1994 का उत्तराखंड आन्दोलन, इसके सूत्रधार थे इंद्रमणि बडोनी। जुबान के पक्के, मजबूत इरादों वाले और सत्ता को हिलाकर रख देने वाले इस शख्स की आज पुण्यतिथि है। 2 अगस्त 1994 का दिन उत्तराखंड कभई नहीं भूल पाएगा। पौड़ी प्रेक्षागृह के सामने इंद्रमणि बडोनी आमरण अनशन पर बैठ गए। राजनीतिक हलकों में खलबली मच गई थी। इसके बाद 7 अगस्त 1994 को इंद्रमणि बडोनी को जबरदस्ती मेरठ अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया था। इसके बाद उन्हें दिल्ली के एम्स अस्पताल ले जाया गया था, जहां उन्हें सख्त पहरे में रखा गया। जनता की तरफ से भारी दबाव आया और तब जाकर 30वें दिन इंद्रमणि बडोनी ने अनशन खत्म किया। ये इंद्रमणि बडोनी की आवाज का ही दम था कि इसके बाद ये आन्दोलन पूरे उत्तराखंड में फैल चुका था।
एक महानायक के पीछे उत्तराखंड की जनता लामबन्द हो गयी। इस वक्त बीबीसी की तरफ से एक रिपोर्ट छापी गई थी इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘‘अगर आपने जीवित और चलते-फिरते गांधी को देखना है तो आप उत्तराखंड चले जायें। वहां गांधी आज भी विराट जनांदोलनों का नेतृत्व कर रहा है।’’ ऐसे जीवट शख्स थे इंद्रमणि बडोनी। 1 सितम्बर 1994 को खटीमा हत्याकांड और 2 सितम्बर 1994 को मसूरी के हत्याकांडों ने पूरे देश में खलबली मचा दी थी। इसके बाद इंद्रमणि बडोनी 15 सितम्बर को शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए मसूरी गए। पुलिस ने बडोनी को जोगीवाला में ही गिरफ्तार कर दिया। यहां से उन्हें सहारनपुर जेल भेजा गया। इस दमन की हर जगह कड़ी निन्दा की गई। दुबले-पतले, लम्बी दाढ़ी वाले शख्स इन्द्रमणि बडोनी अदम्य जिजीविषा वाले शख्स थे। उनका जन्म 24 दिसम्बर 1925 को टिहरी रियासत के जखोली ब्लॉक के अखोड़ी गाँव हुआ था। बडोनी ने गाँव से शिक्षा शुरू की और फिर नैनीताल और देहरादून में शिक्षा प्राप्त की।
19 साल की उम्र में उनकी शादी सुरजी देवी से हुई। जीवन की शुरुआत से इंद्रमणि बडोनी जीवट स्वभाव के थे। 1961 में वो गाँव के प्रधान बने। इसके बाद जखोली विकास खंड के प्रमुख बने। बाद में उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान सभा में तीन बार देव प्रयाग विधानसाभ सीट से जीतकर प्रतिनिधित्व किया।
1977 के विधान सभा चुनावों में वो निर्दलीय लड़े और विरोधियों की जमानतें जब्त करवायीं। 1980 में इंद्रमणि बडोनी उत्तराखंड क्रांति दल के सदस्य बन गये। 1988 में उन्होंने 105 दिनों की पैदल जन संपर्क यात्रा की। इस यात्रा में उन्होंने दो उत्तराखंड राज्य की अवधारणा को घर-घर तक पहुँचाया। उत्तराखंड के सपने को हकीकत में बदलने के लिए इन्द्रमणि बडोनी कड़़ा संघर्ष किया।
उत्तराखंड के इस सच्चे सपूत ने 72 साल की उम्र में निर्णायक लड़ाई लड़ी। ऐतिहासिक जनान्दोलन के बाद भी इंद्रमणि बडोनी1994 से अगस्त 1999 तक उत्तराखंड राज्य के लिए जूझते रहे। लगातार संघर्ष, जनांदोलनों की वजह से उनकी तबीयत खराब होने लगी। 18 अगस्त 1999 को उत्तराखंड का ये सपूत अनंत यात्रा की तरफ महाप्रयाण कर गया।
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