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रुद्रप्रयाग;
भूपेंद्र  भंड़ारी
वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद भले ही केदारपुरी को स्र्माट केदारपुरी का स्वरुप तो दिया जा रहा है मगर यहां के बेशकीमती बुग्याल की तरफ ना तो पर्यावरणविदों का ध्यान है और ना ही सरकार का। ऐसे में विकास के नाम पर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में लगातार बुग्याल  का अवैज्ञानिक विदोहन  हो रहा है जो कि यहां के पारिस्थितकीय तन्त्र के लिए एक बडा खतरा है देखिये खास रिपोर्ट-  -----
साढ़े ग्यारह हजार फीट की उंचाई पर स्थित केदारनाथ धाम में आक्शीजन की आपूर्ति के लिए हरे भरे बुग्याल के मैदान ही एक मात्र जरिया हैं। इन बुग्यिालों में र्दुलभ जडी बूटियां पनपती हैं। आपदा से पूर्व यहां की इक्कोलाॅजी ऐसी थी कि लम्बे समय तक ग्लेशियर बने रहते थे मगर अब ना तो ग्लेश्यिर दिख रहे हैं और ना ही बुग्यिालों के हरे भरे मैदान जो कि एक विचारणीय सवाल है। तीर्थयात्री भी इस बात को महसूस कर रहे हैं कि आखिर विकास के नाम पर क्यों इन बुग्यिालों का दोहन किया जा रहा है। बुग्यिालों को खोदकर वहां टेंटों व कंक्रीटों के जंगल खडे कर दिये गये हैं। 
पर्यावारण विशेषज्ञ मानते हैं कि बुग्यिालों का दोहन किया जाना या उन्हें रौंदा जाना हिमालय के लिए घातक है। विकास के नाम पर जिस तरह से इन सेफटी लाइनों को समाप्त किया जा रहा है वह यहां के पारिस्थतिकीय तन्त्र के लिए घातक है। ये सिर्फ मखमली बुग्यिाल ही नहीं बल्कि यहां के भू क्षरण को रोकने के लिए भी आवरण का काम करते हैं। 

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