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समूचे देश में बाढ के हालत भीषण होते जा रहे हैं। जल भराव से लेकर भूस्खलन तक की स्थितियां निरंतर शीर्षगामी हैं। राहत कार्य जारी हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों का बाजार गर्म है। हर साल कोई न कोई प्राकृतिक आपदा किसी न किसी भूभाग को अपनी गिरफ्त में ले ही लेती है। जनहानि से लेकर धनहानि तक के आंकडे सामने आते हैं। आधुनिक युग, साइबर क्रान्ति और नवीनतम अनुसंधानों के बाद भी इन प्रकोपों का स्थाई निदान प्राप्त नहीं हो रहा है। 

 

 

विकासशील देशों की कौन कहे इस समस्या के शिकार विकसित राष्ट्र भी हैं। बनावटी बरसात, गर्मी और सर्दी जैसी ऋतुओं की अनुभूति कराने का दावा करने वाले देश भी अचानक होने वाली प्रकृतिजन्य समस्याओं से सुरक्षित नहीं हैं। ज्यों-ज्यों विज्ञान की आंधी  और अनुसंधानों का तूफान तेज होता जा रहा है त्यों-त्यों समस्याओं की विकरालता बढती जा रही है।

 

 आधुनिक तकनीक के आधार पर बनाई जाने वाली अधोसंरचनाओं को पुरातन ज्ञान आज भी मुंह चिढा रहा है। अतीत के स्मारक अपनी बुलंदी, अपनी कला और अपनी विधा का लोहा मनवा रहे हैं। सीमेन्ट, बालू, लोहा, गिट्टी जैसे कारकों से बनने वाली इमारतों के जीवन पर अनगढ पत्थर, रेत, चूना, लकडी, बांस, चिकनी मिट्टी, धातु, गुड, बेल, सन, उर्द की दाल जैसे घटकों से तैयार होने वाले भवन लम्बे समय बाद भी अपना स्थायित्व दर्शा रहे हैं।

 यही हाल सरोवरों का भी है। रियासतकालीन जलाशय आज भी भीषण गर्मी के मौसम में पहाडों पर होने के बाद भी अपनी जलराशि से जीवनदान कर रहे हैं जबकि आधुनिक तालाब थोडा सा ताप पाते ही सूख जाते हैं। पुराने किले, दुर्ग और महल अपनी सुदृढता के लिए वर्तमान में भी अद्वितीय उदाहरण बने हुए हैं। गांवों से लेकर रियासत की राजधानियों तक की बसाहट योजनायें तत्कालीन वास्तु, तकनीक और सिद्धान्तों पर आधारित थीं जिसके कारण आबादियों में न तो जल भराव की समस्या थी और न ही जलस्तर गिरने का खतरा। अतिवर्षा के लिए भी पानी के बहाव की दिशा में ही निकास के रास्ते बनाये जाते थे। जलवायु परिवर्तन की समस्याओं का निदान प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्री के मूल स्वरूप से निर्मित भवनों से स्वतः ही हो जाता था। देश, काल और परिस्थितियों के अनुकूल  ही मकानों का निर्माण होता था। जलस्रोतों से स्वतः प्राप्त होने वाला पानी आवश्यकता की पूर्ति हेतु पर्याप्त था। पर्यावरणीय शुद्धता के लिए परा-विज्ञान के प्रयोग निरंतर होते थे। 

शारीरिक पोषण हेतु मूल वनस्पतियों के प्राकृतिक स्वरूप को ही स्वीकार किया जाता था। मानवीय गुणों का सामूहिक प्रयोग सहयोग, सहायता और सौहार्द के रूप में आदरणीय था। मानवीय सोच की बानगी और कृत्यों की समीक्षा से ही प्रकृतिजन्य समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। 

 

महानगरों से लेकर छोट-छोटे गांवों तक में अतिक्रमण का बोलबाला है। खाली पडे भू-भागों पर कब्जे, जलभराव वाले स्थानों पर निर्माण कार्य, वास्तु के विपरीत स्थापनायें, आवश्यकता से कहीं अधिक व्यय, गुणवत्ता की कमी, आधुनिक तकनीक के नाम पर प्राकृतिक संतुलन को तिलांजलि, स्वार्थपूर्ति के लिए सिद्धान्तों को दरकिनार करने वाली घटनायें निरंतर बढती जा रहीं हैं। नालों पर कब्जे, ढलान पर मकान, तालाबों पर अतिक्रमण, निर्माण हेतु अनावाश्यक ब्लास्टिंग जैसे कार्यों को पंख मिल चुके हैं। 

 

सरकारी योजनाओं में लाभार्थियों के लिए जटिलतायें, उलझाऊपन और अनावश्यक प्रक्रियाओं का अम्बार लगाना, तो उत्तरदायी लोगों के लिए एक आम बात हो गई है। सरकारी औपचारिकताओं में नित नये प्राविधानों को जोडना, समीक्षा-संशोधनों के नाम पर आम आवास को साइबर तकनीक का कठिन अध्याय देना तथा स्थलीय संरचनाओं में अदूरदर्शिता का बोलबाला निरंतर बढता जा रहा है। देश की राजधानी से लेकर गांवों की गलियों तक में नालों, जल निकासी मार्ग पर दबंगों का साम्राज्य देखा जा सकता है। 

 

किसी प्रभावशाली को लाभ देने हेतु भूगर्भीय संरचना के आधार पर हो रहे जल के बहाव की दिशा के विपरीत निकासी के प्रयास तो मूर्खता की मुस्कुराहट ही कही जा सकती है। पहाडों पर तो विकास के नाम पर विनाश की तांडव हो रहा है। कमजोर पहाडों पर भारी-भरकम ब्लास्टिंग हो रही है।

 

 संकीर्ण पगडंडियों को चार लेन की सरपट सडक बनाने हेतु कार्य किये जा रहे हैं। आधुनिक तकनीक के प्रयोगों ने वहां के निवासियों को जीते जी मौत के मुंह में पहुंचाना शुरू कर दिया है। धर्म के नाम पर एक बडा वर्ग स्वार्थ का वर्चस्व कायम करने में लगा है। कुछ लोग आस्था के चश्मे से पिकनिक की मौज देखने में जुटे हैं।

 

 तीर्थ यात्राओं के मुखौटे के पीछे से विलासता को तलाशने वालों की संख्या में बढोत्तरी हो रही हैं। भारतीय संस्कृति, पुरातन विधाओं और सनातनी मूल्यों को लालफीताशाही ने निहित स्वार्थों की पूर्ति पर बलिदान कर दिया है। ज्यादातर लोगों ने कर्तव्यों को हाशिये पर पहुंचाकर अधिकारों की तलवारें खींच लीं हैं। 

 

उत्तरदायी लोगों की आंखों से सामने ही व्यवस्था की धज्जियां उडाने वाले प्रकरणों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। संवैधानिक संस्थाओं के अनेक कृत्य उनकी निरंकुशता का बोध करा रहे हैं। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायापालिका से जुडे अनेक जिम्मेदार लोगों पर स्वार्थ सिद्धि के आरोपों ने तो देश के आने वाले कल पर ही प्रश्नचिन्ह अंकित कर दिये हैं।

 

 ऐसे हालातों में प्राकृतिक आपदाओं के कारण, स्वरूप और परिणामों की बृहद समीक्षा की जाना नितांत आवश्यक है ताकि इसके प्रकृतिजन्य, मानवजन्य और संयोगजन्य कारकों को रेखांकित किया जा सके। यही कारक विकराल होती समस्याओं के स्थाई निदान का धरातल तैयार करने में सहायक सिद्ध होगें। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।




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