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देश के आन्तरिक हालात चिन्ताजनक होते जा रहे हैं। न्यायपालिक और विधायिका के टकराव की स्थिति मे कार्यपालिका पूरा आनन्द ले रही है। पांच साल के लिए आने वाली सरकारों को ज्ञान की कक्षायें देने वाली कार्यपालिका के कुछ बेहद चतुर अधिकारी सलाहकार बनकर उलझाव की स्थितियां निर्मित करने में महात्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।




 उच्चतम न्यायालय व्दारा राष्ट्रपति तक को निर्देश देने की घटना ने एक बार फिर संविधान की समीक्षा की आवश्यकता पैदा कर दी  है। सत्ताधारी दल के साथ वैचारिक मतभेद वाले विपक्ष ने अब राष्ट्रहित, नागरिक हित और व्यवस्था हित की कीमत पर वाक्यतीर चलाने शुरू कर दिये हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों के मध्य कठिन परिस्थितयां नित नये सोपान तय कर रहीं हैं। झारखण्ड के गोड्डा संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित सांसद निशिकान्त दुबे से लेकर उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ तक ने न्यायपालिका को आडे हाथों लिया है। ऐसे में एक देश-एक कानून, एक देश-एक चुनाव और एक देश-एक व्यवस्था लागू हुए बिना आये दिन के टकराव रोक पाना असम्भव नहीं तो अत्याधिक कठिन अवश्य है। कभी केन्द्र के व्दारा पारित होने वाले कानूनों को राज्य व्दारा मानने से इंकार किया जाता रहा है तो कभी व्यायपालिका व्दारा कानून का मनमाना संशोधन होता रहा है। उदाहरण के तौर पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व्दारा वफ्फ कानून को मानने से इंकार करने से लेकर उच्चतम न्यायालय व्दारा आर्टिकल 377 के माध्यम से होमोसेक्सुअलिटी को अपराध मानने की व्यवस्था को अबालिश करने तक के अनेक प्रकरण देखे जा सकते हैं। समय-समय पर संविधान की पुनर्समीक्षा की मांग उठती रही है परन्तु सत्ता पक्ष और विपक्ष के मध्य वोट बैंक बढाने की लालची प्रवृत्ति ने हमेशा ही शून्य परिणाम ही दिये हैं। गहराई से विवेचना करने पर पूरा प्रकरण ही कार्यपालिका के चुनिन्दा अधिकारियों की देने प्रतीत होता है। कार्यपालिका के अनेक अधिकारियों के मनमाने फरमानों के विरुध्द जब उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने तबज्जोह नहीं दी तो मजबूरी में पीडित को न्यायपालिका के दरवाजे पर दस्तक देने के लिए बाध्य होना पडा। यही वह समय था जब न्यायपालिका ने कार्यपालिका पर शिकंजा कसना शुरू किया। पीडितों को न्याय देने के लिए उसने आदेश पारित करना शुरू कर दिये। प्रारम्भिक काल में पीडित को अदालतों से राहत तो मिली मगर मनमाना फरमान जारी करने वालों को पर्याप्त दण्ड का अभाव दिखाई पडा। समय के साथ परिस्थितियां बदलती चलीं गईं। राजस्व के अनगिनत प्रकरणों ने विकराल रूप लेकर आपराधिक वारदातों में इजाफा करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका के अनेक आदेशों पर कार्यपालिका का उपेक्षात्मक रूप भी सामने आया जिस पर कडा रुख अपनाते ही कार्यपालिका का दण्डवत होना शुरू हो गया। वर्तमान हालात यह है कि कार्यपालिका हमेशा ही न्यायपालिका के समक्ष हाथ जोडे खडी रहती है जबकि विधायिका के कई सदस्यों की अनेक संस्तुतियां अधिकारियों के प्रतीक्षा सूची वाले पैड में धूल खाते-खाते लुप्त हो जातीं हैं। कार्यपालिका की चतुराई के सामने अनेक जनप्रतिनिधियों का राजनैतिक ज्ञान बौना पड जाता है। संवैधानिक शिक्षा का अभाव, विभागीय पैचीदगी से अनभिग्यता तथा स्वयं के अधिकारों के उपयोग की गैर जानकारी के कारण मंत्रियों पर सचिव, विधायकों-सांसदों पर सरकारी निजी सहायक और अन्य जनप्रतिनिधियों पर विभाग प्रमुख हावी रहते हैं। कानून के लचीलेपन का फायदा उठाने में माहिर लालफीताशाही ने अपनी निरंकुशता को बचाये रखने के लिए न्यायपालिका को सम्मान देने का तरीका निकाल लिया है। ज्ञातव्य है कि स्वाधीनता के बाद कलेक्टर को राजस्व वसूली तथा राजस्व प्रकरणों तक ही सीमित अधिकार दिये गये थे जिसे समय की आवश्यकता बताते हुए निरंतर विस्तार दिया जाता रहा और आज हालात यह है कि कलेक्टर जिले का एक मात्र मुखिया माना जाता है। सभी विभागाध्यक्ष उनसे सामने नतमस्तक रहते हैं। उनका आदेश ही अध्यादेश बनकर व्यवहार में परिलक्षित होता है। दूसरी ओर पांच साल के लिए पदस्थ होने वाले जनप्रतिनिधियों के चुनावी दंगल में राजनैतिक पार्टियां जीत के लिए जातिगत समीकरणों, आर्थिक सम्पन्नता और जनबल की ठेकेदारी जैसे मापदण्डों को प्रमुखता देकर अपने उम्मीदवारों का चयन करतीं है ताकि जीत के आंकडों में ऊपर पहुंचा जा सके। योग्यता, अनुभव और अधिकारों के वास्तविक स्वरूप से अनभिग्य जनप्रतिनिधियों को भीवी चुनावों में जीत हासिल करने वाली रणनीति के तहत सत्ता में बडे दायित्व दिये जाते हैं तब कार्यपालिका में बैठे उनके अधीनस्त सरकारी मुलाजिमों की पांचों अंगुलियां घी में और सिर कढाई में हो जाती है। योग्यता और कथित योग्यता के शीर्ष पर स्थापित चतुर कार्यपालिका जब संविधान की बारीकियों को जानने वाली न्यायपालिका के अहम् को संतुष्ट करने में सफल रही है फिर विधायिका में प्रवेश पाने वालों को इच्छित दिशा में मोडना तो उनके लिए बांये हाथ काम है। कहा जाता है कि कार्यपालिका के व्दारा ही न्यायपालिका को विधायिका के कार्यों में दखल देने हेतु अवसर प्रदान किये जाते हैं। चुनावी संग्राम में विवादास्पद स्थितियों का निर्माण, घोषणाओं पर शंकाओं का प्रादुर्भाव और व्यवस्था पर अपारदर्शिता के प्रत्यक्षीकरण जैसे कारक कार्यपालिका की ही देन होते हैं जिन पर न्यायपालिका की दखलंदाजी आवश्यक प्रतीत होने लगती है। पराजित प्रत्याशी की पीडा को न्याय मिलना बेहद जरूरी होता है। सो निर्वाचन से लेकर परिणामों  की घोषणाओं तक की विवादास्पद स्थितियों में सत्य पाने हेतु कई बार तो असत्य भी भागदौड करने लगता है। ऐसे में  न्यायालयों की भूमिका का विस्तार आम आवाम से हटकर विधायिका के क्षेत्र तक पहुंच जाता है। वर्तमान में तो हालात यहां  तक पहुंच गये हैं कि न्यायपालिका ने अनुच्छेद 142 के आधार पर देश के सर्वोच्च पद पर आसीत राष्ट्रपति तक को निर्देश जारी कर दिये है। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में राष्ट्रपति को भी कटघरे में खडे होने का आदेश जारी होगा। दूसरी ओर दिल्ली के जस्टिस यशवन्त वर्मा पर लगे आरोपों पर अभी तक प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हुई है। वर्तमान हालातों की तह तक पहुंचने के लिए इस बात की समीक्षा आवश्यक है कि कहीं कार्यपालिका की शह पर तो विधायिका-न्यायपालिका के अधिकारों की जंग शुरू नहीं हुई है? इस हेतु देश के आम नागरिकों को बेहद संवेदनशील होकर सक्रिय होना पडेगा तभी संविधान के तीनों अंगों में चल रही कथित वर्चस्व की जंग समाप्त हो सकेगी अन्यथा सत्ता और विपक्ष का यह सांप-सीढी वाला खेल आन्तरिक अशान्ति का कारण बने बिना नहीं रहेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


 


Dr. Ravindra Arjariya

Accredited Journalist

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