पुतला फूंकना, पहाड़ी को गाली दी यह कहकर उत्तराखंड में अच्छा खासा बवाल मचा हुआ है।
क्या वाकई हम उत्तराखंड वासी कभी पहाड़ और मैदान से बाहर आ पाएंगे।
कमोबेश 24 साल पहले यह स्थिति हुआ करती तो..
जबकि सच यह है कि हर पहाड़ में रहने वाला व्यक्ति 500 से 600 वर्ष पूर्व कहीं न कही मैदान से ही आ रहे थे।
विधायक ऋषिकेश का विरोध गाली देने पर है या मुद्दा सिर्फ पहाड़ शब्द को लेकर है। गाली देने का विरोध तो विधानसभा मर्यादा को देखते हुए किसी हद तक सही है परंतु बार बार पहाड़ी को , पहाड़ शब्द को हाईलाइट करना , कहाँ तक सही है, यह सोचना भी जरूरी है।
उत्तराखंड कोई पहाड़ के निवासियों से ही नही है, बल्कि बड़ा जिला हरिद्वार, देहरादून, रुद्रपुर, काशीपुर इत्यादि निवासियों से भी है।मंत्रियों में भी पहाड़ और मैदान का भूत लानेवाले कौन है?
क्या ये वास्तव में वो है जो पहाड़ पर बैठकर राजनीति या समाजसेवा या पत्रकारिता कर रहे है ? क्या इन्होंने पहाड़ की कठिनतम डगर को छोड़कर मैदान का रुख नही किया?क्या, इन्होंने पलायन का सहारा नही लिया? क्या इन्होंने विस्थापन का दंश झेलने के बाद भी मैदान का रुख नही किया?
यदि हाँ तो इन्हें जरूर हक बनता है , अन्यथा उत्तराखंड के विकास में बाधा बनने का इन्हें कोई हक नही है। हम कब यह सुनेंगे, कि उत्तराखंड एक पर्वतीय बहुल क्षेत्र है,जिसमे सभी का बराबर हक है। यही विचारणीय है, पहाड़- पहाड़ी चिल्लाना बंद कर काम की बात पर अपना कीमती समय लगाकर प्रदेश की जनता हक को दिलाने में सहायता करना चाहिए । यही आवश्यक और समय की मांग है।
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