कुमाऊँ में मनाया जा रहा सातु आठु उत्सव जगत जननी माँ पार्वती और भगवान शिव की उपासना का लोक पर्व है.
महिलाएं हिमालय पुत्री माँ पार्वती ( गमरा) और भगवान शिव की महेश्वर के रूप में सुंदर सुसज्जित मुर्ति बनाकर एक गाजे बाजे के साथ गाँव के एक मकान में स्थापित कर ब्राह्मणों द्वारा विषेश पुजा करती है, सातु आठु में कुमाऊँनी धर्म और लोक संस्कृति, पारम्परिक वेशभूषा की गहरी झलक दिखाई देती है तथा गौरा को वनस्पति और महेश्वर को प्रकृति का प्रतीक माना जाता है।
प्राचीन मान्यता के अनुसार भाद्रमाह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मां गौरा अपने ससुराल से अपने मायके आती है, पुजा अर्चना के बाद सभी महिलायें गले में दुब धागा पहनती हैं, इसके अगले दिन अष्टमी को महेश्वर की प्रतिमा बनाकर सभी महिलाएं पुजा अर्चना करती हैं मान्यता है कि इस दिन उपवास में रहकर पुजा अर्चना करने से अखण्ड सौभाग्य व मनोकामनाएं पुरी होती हैं इसलिए इसलिए इस पर्व को महिलाओं विषेशकर बेटियों का त्यौहार माना जाता है ।
इससे पहले पंचमी के दिन पांच साबुत दालों को विषेश कर तांबे के बर्तन में भिगोकर और बाहर से गाय के गोबर में दुब लगाकर रोली अक्षत लगा कर अखण्ड दीया जलाया जाता है जिसे बिरुड़ा पंचमी कहते हैं तथा सप्तमी, अष्टमी को इन्ही बिरुड़ो को गौरा महेश्वर को चढ़ाया जाता है।
तत्पश्चात 2 से 5 दिन तक पुरा कुमांऊनी समाज इकट्ठा होकर जौड़ा ,चाचरी, पुरे सांस्कृतिक विरासत के अनुसार उत्सव को मनाकर किसी प्राकृतिक जल धारा या देवालय के पास पारम्परिक विधि विधान से गौरा महेश्वर की प्रतिमा को विर्सजित कर दिया जाता है।।
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