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चर्चित व्यक्ति को नेतृत्व देने की पुरातन परम्परा रही है। प्रतिभा, योग्यता और समर्पण के आधार पर चर्चाओं का वातावरण सकारात्मकता का पर्याय हुआ करता था। वर्तमान समय में सकारात्मकता को नकारात्मकता ने पछाड दिया है। 

वातावरण निर्माण हेतु प्रायोजित कार्यक्रमों का दौर शुरू हो गया है। लाभ के अवसरों के लिए आपसी समझौतों की श्रंखला अब नित नई ऊंचाइयां छूने लगीं हैं। इन कार्यक्रमों को विभिन्न माध्यमों से आम आवाम तक पहुंचाने वाले समूह को आधुनिक भाषा में पीआर ग्रुप का नाम दिया गया है। व्यक्तिगत संबंधों को व्यापक बनाने के लिए अब विशेषज्ञों की तलाश की जाने लगी है। राजनैतिक धरातल से लेकर वित्तीय संस्थानों तक ने अपने विस्तार के लिए पीआर स्पेशलिस्ट्स की फौज नियुक्त कर ली है। इनसे हटकर अपराधियों, असामाजिक तत्वों और षडयंत्रकारियों ने तो संचार माध्यमों के लिए विधिवत व्यक्तिगत तंत्र ही विकसित कर लिया है। स्वधीनता संग्राम के दौर में धरती से जुडे राष्ट्र भक्तों का बलिदान भी गोरों के षडयंत्र का शिकार हो गया था। उस दौर में भी पैसों की चमक, लालच के दावानल और सत्ता के सम्मान ने इच्छित व्यक्यिों को देश का लोकप्रिय नेता घोषित करवा दिया गया था। तब षडयंत्र के तहत अंग्रेजी पत्रों में व्यक्ति विशेष के लिए आलेख, समाचार और  उनकी कथित जीवन गाथायें प्रकाशित करवायी जातीं थीं। लोलुप लोगों को व्यक्ति विशेष के पक्ष में वातावरण निर्मित करने के काम में लगा दिया जाता था, जो चौराहों से लेकर चौपालों तक पहुंचकर उसकी प्रशंसा में मनगढन्त कहानियों सुनाता और समाज में उसे चर्चा का विषय बना देता था। धीरे-धीरे उसके वक्तव्यों को कालीदास के इशारों में बदलकर विदुषी विद्योत्मा बनी आवाम के समक्ष परोसा जाता ताकि समाज उस पैरासूट नेता को वास्तविक नेतृत्व प्रदान कर दे। कठपुतली को जीवित शरीर के भ्रम के रूप प्रस्तुत किया गया। अन्त: देश में जब राष्ट्र भक्तों का दबाव बढने लगा, आम आवाम स्वाधीनता के लिए कफन बांधकर खडी हो गई तो गोरों ने अपनी कठपुतलियों को नेता बनाकर पेश किया। वार्ता के लिए उन्हें ही आमंत्रित किया और दिखाने शुरू कर दिये देशवासियों को सब्जबाग। इतिहास की गवाही ने एक बार फिर वर्तमान को व्यथित करना शुरू कर दिया है। अतीक, शाइस्ता, असद, गुलाम, अशरफ, अमृतपाल, जोगा जैसों की नकारात्मकता को सुुर्खियां मिलने लगीं। उनके पक्ष में कमर कसकर खडे लोगों की बातों को महात्व दिया जाने लगा। किसी लोकप्रिय जन कल्याणकारी समाजसेवी की तरह उनकी जीवन गाथायें, विश्राम करने के स्थान, सहयोगियों की जमात जैसे कारक आज चारों ओर छाये हुए हैं। नकारात्मकता को समाप्त करने में लगे लोगों पर प्रश्नचिन्ह अंकित करने का फैशन चल निकला है। सत्य को कोसकर असत्य को स्थापित करने का कारोबार तो दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करने लगा है। विचार मंथन के माध्यम से पेश किये जाने वाले कार्यक्रम समाज को तोडने में महात्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। सोची समझी योजना के तहत चलने वाले कृत्यों को सामान्य ढंग से होने वाली गतिविधियों की तरह प्रस्तुत करने की पटकथा तो पहले ही लिखी जा चुकी है। कभी कश्मीर में सेना के जवानों पर वहां के आतंकियों के थप्पड पडते थे और थप्पड मारे वालों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर राष्ट्र भक्त फौजियों पर मामले दर्ज किये जाते थे, जबाब मांगे जाते थे, आत्मरक्षा में उठाये गये कदमों को अपराध बनाकर न्याय की चौखट पर दस्तक दी जाती थी। ऐसे लोलुप भितरघातियों की जमात अब आतंक की इबारत बनने की हसरत पालने वालों के चारों ओर सुरक्षा कवच लगा रही है। सरेआम हत्या करने वालों के साथ खडे लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। अनेक घरों के चिरागों को बुझाने वालों के दीये पर हवा को लगते अपराधियों ने अपने संरक्षणदाताओं के साथ मिलकर मुल्क की फिजां में जहर घोलने का काम शुरू कर दिया है। इस जहर की चर्चा भी प्रमुखता से की जाने लगी है। पीआर के विशेषज्ञों को मैदान में उतार दिया गया है। अपराध की कहानियां सुना सुनाकर आम आवाम में दहशत पैदा करने वाले अपने विदेशी आकाओं के इशारों कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं। 

राजनीति के पंडितों से लेकर अपराध के जल्लादों तक ने समय के साथ करवट बदल ली है। दहशत के आकाओं को उनकी जाति विशेष के लिए संरक्षक की भूमिका में दिखाया जाने लगा हैं। अपराध से जुटायी गई धन-सम्पत्ति से राजनीति के दरवाजे पर दस्तक देने का क्रम भी चल निकला है। सत्ता का मुखिया बनने वाला व्यक्ति भी अपनी जाति के लिए लचीला रुख अख्यितार करता है। 

अन्य सशक्त जातियों को नस्तनाबूत करने की मुहिम भी पर्दे के पीछे से निरंतर चलाता है। दूसरी ओर पार्टी के लिए धन संग्रह करने में अपराध जगत की महात्वपूर्ण भूमिका भी तेजी से बढ जा रही है।

 पार्टियों की चंदा राशि को सूचना के अधिकार की सीमा से बाहर रखा गया है। इसी तरह निजिता की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी और मौलिक अधिकारों की दुहाई जैसी व्यवस्थायें देश को कोढ में खाज देने का काम स्वाधीनता के बाद से निरंतर कर रहीं हैं। 

पंजाब में सत्ता बदलते ही खालिस्तान के नारे बुलंद होने लगे। खास दलों की सरकारों वाले राज्यों में धार्मिक उन्माद चरम सीमा पहुंचता जा रहा है। व्यक्तिगत हितों पर आदर्श, सिध्दान्त और नीतियों की हत्यायें हो रहीं है। लोगों की महात्वाकांक्षायें अब आसमान छूने लगीं हैं। 

दल बदलकर इच्छित लक्ष्य की पूर्ति में जुडे लोगों ने स्वयं को जाति विशेष, सम्प्रदाय विशेष तथा क्षेत्र विशेष का कथित ठेकेदार घोषित कर दिया है। ऐसे लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए खद्दरधारियों की टोलियां जुटीं है ताकि आने वाले चुनावों में सत्ता का सिंहासन मिल सके। देश के लिए घातक है अपराधियों का महिमा मण्डन, परन्तु संचार माध्यमों के चन्द मठाधीशों को किन्हीं कारणों से यह सब दिखाई नहीं दे रहा है। यही फर्क है धृतराष्ट्र और गांधारी के अंधेपन में। 

एक तो सत्ता के लालच में अंधा है तो दूसरा वैभव की प्रचुरता के पीछे पागल होकर अंधे का अंधा बनकर अनुशरण कर रहा है। ऐसे में देश के राष्ट्र भक्त नागरिकों को ही आगे आने होगा, तभी बूंद-बूंद पानी से गागर भर सकेगी और पुन: प्राप्त किया जा सकेगा विश्व गुरु का सम्मान। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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