मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रदेशवासियों को नवसंवत्सर के साथ ही चैत्र नवरात्रि की शुभकामनाएं दी है। चैत्र नवरात्रि को शक्ति की उपासना का पर्व बताते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि यह पर्व हमें नवीन उत्साह के साथ देश व समाज की सेवा की भी प्रेरणा देता है।
अपने संदेश में मुख्यमंत्री ने कहा कि भारतीय सनातन परम्परा में किसी भी शुभ कार्य के प्रारम्भ में संकल्प लेने का विधान रहता है। शक्ति के अनुष्ठान का यह पर्व रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों के प्रति प्रेरणा प्रदान करने वाला हो इसका हमें संकल्प लेना होगा। यह नवसंवत्सर सभी के जीवन में सुख, समृद्धि प्रदान करने वाला हो इसकी भी उन्होंने कामना की है।
मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा है कि यह पर्व भारतीय संस्कृति की महान परंपरा का प्रतीक है। नवरात्र का यह पर्व समाज में नारी के महत्व और सामर्थ्य को दर्शाता है। इस अवसर पर किया जाने वाला कन्यापूजन नारी शक्ति के महत्व का प्रतीक है।
मुख्यमंत्री ने कहा कि चैत्र नवरात्र को इस बार प्रदेश में नारी शक्ति उत्सव के रूप में मनाया जाएगा। इस दौरान प्रत्येक जिले में देवी उपासना के कार्यक्रम आयोजित होंगे। हमारे वेदों और पुराणों में चैत्र नवरात्रि को विशेष महत्व दिया गया है। इसे आत्मशुद्धि तथा सद् प्रवृत्ति का आधार माना गया है। चैत्र नवरात्रि में मां दुर्गा का पूजन करने से नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है तथा एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। अतः चैत्र नवरात्रों की उत्तराखण्ड राज्य में व्यापक धार्मिक महत्ता के दृष्टिगत इस दौरान प्रदेश में सभी प्रमुख देवी मंदिरों एवं शक्तिपीठों में धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। मुख्यमंत्री ने सभी से नारियों के सम्मान की भी अपील की है।
चैत्र की प्रतिपदा को हिंदू धर्म का नया वर्ष शुरू होता है जिसे हम नव संवत्सर भी कहते हैं आज से नव संवत्सर 2070 की शुरुआत हो रही है
ऐसे करें पूजन-अर्चन
शास्त्रौ के अनुसार, नवरात्रि का पर्व आरंभ करने के लिए मिट्टी की वेदी बनाकर उसमें जौ और गेंहू मिलाकर बोएं। उस पर विधि पूर्वक कलश स्थापित करें। कलश पर देवी जी मूर्ति (धातु या मिट्टी) अथवा चित्रपट स्थापित करें। नित्यकर्म समाप्त कर पूजा सामग्री एकत्रित कर पवित्र आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें तथा आचमन, प्राणायाम, आसन शुद्धि करके शांति मंत्र का पाठ कर संकल्प करें। रक्षादीपक जला लें।
गणेश-अंबिका, कलश (वरुण), मातृका पूजन, नवग्रहों तथा लेखपालों का पूजन करें। प्रधान देवता-महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती-स्वरूपिणी भगवती दुर्गा का प्रतिष्ठापूर्वक ध्यान, आह्वान, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध, अक्षत, पुष्प, पत्र, सौभाग्य द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, ऋतुफल, ताम्बूल, निराजन, पुष्पांजलि, प्रदक्षिणा आदि षोडशोपचार से विधिपूर्वक श्रद्धा भाव से एकाग्रचित होकर पूजन करें।
आज ही ग्रीष्मकालीन नवरात्रों का प्रारंभ होता है प्रथम दिन
शैलपुत्री देवी दुर्गाके नौ रूप में पहले स्वरूप में जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा।
नवरात्र-पूजन में
प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना
में योगी अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग
साधना का प्रारंभ होता है।
वन्दे वंछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम् |
वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ||
वृषभ-स्थिता
इन माता के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है।
अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई
थीं, तब इनका नाम 'सती' था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था।
एक
बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे
देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया, किन्तु
शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि
उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के
लिए उनका मन विकल हो उठा।
अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई।
सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश
हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया
है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं
बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना
किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।'
शंकरजी के इस उपदेश से सती का
प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने
की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर
भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।
सती ने पिता के
घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा
है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले
लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।
परिजनों
के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि
वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने
उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ,
ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न
मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर
के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि
द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर
शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः
विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर
अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे
'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं।
उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का
गर्व-भंजन किया था।
'शैलपुत्री' देवी का विवाह भी शंकरजी से ही
हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं।
नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।
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