Halloween party ideas 2015

 

 


 


 

 

पडोसियों के हालातों से देश को सीख लेना आवश्यक

 

 

                    देश के वर्तमान हालात बेहद अच्छे दिख रहे हैं। आर्थिक पैमाने पर भारत ने ब्रिटेन से भी ऊपर पहुंच कर दुनिया का पांचवां स्थान प्राप्त कर लिया है। अन्य देशों की मदद के लिए भी हमेशा खडा रहता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवता की मिशाल बनने के साथ-साथ देश के अन्दर भी नित नये कीर्तिमान गढे जा रहे हैं। मुफ्त में अनाज, मकान, घरेलू वस्तुयें, कन्याओं का विवाह, तीर्थ यात्रा, सरकारी कर्मचारियों को पेन्शन, फसल बीमा, वृध्दावस्था पेंशन, विभिन्न वर्गों को सम्मान राशि, हज के लिए अनुदान, आस्था के स्थलों हेतु सहायता राशि, खास वर्ग के छात्रों हेतु छात्रवृत्ति, नि:शुल्क शिक्षा, अधिकांश लोगों को पांच लाख तक की नि:शुल्क चिकित्सा, बच्चों को मध्यान्ह भोजन, आंगनवाली में पोषक आहार, बीमारियों की रोकथाम हेतु अग्रिम टीकाकरण जैसे अनगिनत कार्यक्रम निरंतर चलाये जा रहे हैं।

 मानव शक्ति के स्थान पर यांत्रिक शक्ति, भौतिक दस्तावेजों के स्थान पर डिजिटल दस्तावेज जैसी अत्याधुनिक व्यवस्थायें भी लागू हो रहीं हैं। यंत्र, यंत्री और यांत्रिकी पर आश्रित होता देश आज विश्व में अपनी तीव्रतम विकास यात्रा के लिए उदाहरण बनता जा रहा है। निश्चित ही वर्तमान में सब कुछ सुखद है परन्तु भविष्य को लेकर वर्तमान की कार्य प्रणाली अब चिन्ता का कारण भी बनती जा रही है। देश में एसी, टीवी, फ्रिज, कार जैसी भौतिक विलासता की वस्तुयें निरंतर मंहगी होती जा रहीं है। आलू, टमाटर, गेंहू, चावल आदि के मूल्यों में अपेक्षाकृत गिरावट आती जा रही है। टमाटर उगाने वाले किसान को उसकी फसल के लिए आढतियों से 2 से 3 रुपये प्रति किलो ही प्राप्त हो रहे हैं। गेहूं के लिए 20 से 25 रुपये मिलते हैं। जीवन को चलाने वाली वस्तुओं का उत्पादन करने वालों की हथेली पर चन्द सिक्के ही आ रहे हैं जबकि भौतिक विलासता के संसाधनों का निर्माण करने वाले भारी लाभ कमा रहे हैं। विलासता के संसाधनों को जीवन चलाने का आधार कदापि नहीं माना जा सकता बल्कि इनका उपयोग करके बीमारियों की सौगात ही मिलती है। मुफ्तखोरी के कारण एक बडा तबका कामचोर होता जा रहा है। सरकारी कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों की वेतन तथा भत्तों में आशातीत वृध्दि हो रही है। विलासता के उपकरणों के निर्माताओं की झोलियां निरंतर भरती रहतीं हैं। कथित निम्नवर्गीय आबादी को मुफ्त में जीवकोपार्जन सहित विलासता की सुविधायें उपलब्ध कराई जा रहीं हैं। केवल और केवल मध्यम वर्गीय जनसंख्या ही कोल्हू के बैल की तरह आंख पर पट्टी बांधकर सरकारी महकमों और हरामखोरों के लिए तेल निकालने का काम कर रही है। इसी तेल से देश के तंत्र को ईंधन मिलता है। हरामखोरों को सुविधायें मिलतीं है। मगर कब तक। यह एक यक्ष प्रश्न है। आज पडोसी देश पाकिस्तान के वर्तमान हालातों से सीख लेने का अवसर है। वहां की सरकार ने अपने खर्चे कम करना शुरू कर दिये हैं। पश्चिम की नकल के पीछे दौडने वाला देश आज आत्म अवलोकन करने के लिए बाध्य है। यह हाल केवल पाकिस्तान का ही नहीं है बल्कि श्रीलंका, बंगलादेश सहित एक दर्जन से ज्यादा राष्ट्रों का है जो अब आत्म निरीक्षण करने में जुटे हैं। संविधान निर्माताओं से लेकर समय-समय पर संशोधन करने वालों ने स्वयं के हितों के अलावा केवल सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों की सुविधा का ही ध्यान रखा है ताकि खास राजनैतिक दल को सत्ता पर काबिज रहने के अवसर यह सरकारी तंत्र ऐन-केन-प्रकारेण उपलब्ध कराता रहे। मगर इस तंत्र के सिपाहसालार का एक बडा तबका हमेशा ही आत्मकेन्द्रित होकर रहा। पांच सालों तक सरकार पर काबिज रहने वाले लोगों को सब्जबाग दिखाकर यह तबका हमेशा ही अपना, अपने परिवार और आत्मीयजनों के हितों के अवसर ही तलाशता रहा। निरीह नागरिकों पर हुकूमत करता रहा। वास्तविकता तो यह है कि हमारे संविधान में विधायिका को केवल कानून बनाने तथा निर्देश देने के अधिकारों तक ही सीमित कर दिया गया है। देश में चयनित राष्ट्रपति से लेकर गांव के सरपंच तक को किसी की नियुक्ति, निलंबन या निष्कासन करने का अधिकार नहीं है। कार्यपालिका को ही यह अधिकार दिये गये हैं। वरिष्ठ अधिकारी ही अधीनस्त अधिकारियों-कर्मचारियों की नियुक्त, निलंबन, निष्कासन कर सकते हैं। चौराहों से लेकर चौपालों तक में इस व्यवस्था को चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत के रूप में परिभाषित करते सुना जा सकता है। कार्यपालिका के किसी भी सदस्य की अनियमिततायें उजागर होने के बाद भी विधायिका उसे कारण बताओ नोटिस तक नहीं दे सकती। गण पर थोपा गया तंत्र बेहद पैचींदगी भरा है।

 

 संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिये निर्धारित दायित्वों की व्याख्या को इतना जटिल बना दिया गया है कि अनेक अवसरों पर टकराव की स्थिति तक निर्मित हो जाती है। ऐसे में देश की बेहतरी के लिए संयुक्त प्रयासों का मूर्तरूप लेना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। तिस पर तुष्टीकरण के आधार पर वोट बैंक में इजाफा करने वाले दलों की अपनी नीतियां ग्रहण की तरह लगीं हुईं है।

 

 इतिहास गवाह है कि जब-जब मध्यम वर्गीय आवाम को उसकी सहनशक्ति से अधिक दबाया गया, तब-तब क्रान्ति का शंखनाद हुआ। उच्चवर्गीय लोगों के पास सेवकों की जमात खडी रहती है, टैक्स को समायोजित करने के लिये कानूनी दावपैंचों के महारथी हाजिरी भरते हैं, चाटुकारों की फौज मुनाफे  की नयी संभावनायें बताते हैं, सत्ता के गलियारों से लाभ के अवसर मिलते हैं। वहीं हरामखोरों की भीड अब गरीब, दलित, पिछडा, अल्पसंख्यक, आदिवासी की सूचियों में नाम दर्ज करवाने के बाद मौज मना रही है।

 

 कठिन समय में मिलने वाली सहायता को हितग्राही अपना अधिकार मान बैठते हैं। सहायता बंद होते ही वे प्रदर्शन, धरना, घेराव जैसी स्थितियां पैदा कर देते हैं। इस भीड के वोट को हथियाने के लिए राजनैतिक दलों के कद्दावर नेता अगुवाई करने के लिए छाती तानकर खडे हो जाते हैं। 

 

इस तरह की अनेक स्थितियों से गुजर रहे  देश को अब अपनी धरातली स्थितियों की समीक्षा करना नितांत आवश्यक हो गया है। दुनिया के अनेक राष्ट्रों में मंदी की मार चरम सीमा पर पहुंचती जा रही है। भारत पर तो जनसंख्या का दबाव भी निरंतर बढता जा रहा है।

 

 हर कोई सरकारी नौकरी की आस लगाये बैठा है। नौकरियों में भी जातिगत, क्षेत्रगत, जनसंख्यागत आरक्षण से प्रतिभाओं का पलायन दूसरे देशों की ओर तेजी से हो रहा है। अपात्र अभ्यार्थियों को आरक्षण की आड में सरकारी कुर्सी पर बैठा देने से कार्य क्षमता सीधी प्रभावित हो रही है। कुल मिलाकर पडोसियों के हालातों से देश को सीख लेना आवश्यक है अन्यथा तुष्टिकरण के सिध्दान्त को कठिन परिस्थितियों के आमंत्रण के रूप परिवर्तित होते देर नहीं लगेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ पुन: मुलाकात होगी।



Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
for cont. -

एक टिप्पणी भेजें

www.satyawani.com @ All rights reserved

www.satyawani.com @All rights reserved
Blogger द्वारा संचालित.