वह वातावरण, वह प्राकृतिक सुंदरता, वह उबड़-खाबड़ तथा पत्थरीले रास्ते, वह पेड़-पौधे, वह पशु-पक्षी, वह आमने-सामने हरी-भरी झाड़ियाँ व कंटीली पत्तीदार झाड़ियां व तरह-तरह के सूखा है व हरीयाली भरा घास, हम सबके हृदय व मन की ताजगी भरी नई उमंग व जोश से भर देती है।
हर दिलों को सुकुन पहुंचाने का कार्य हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक रहता था। उसी चीज की महत्ता की चमक-दमक दिन-प्रतिदिन पलायन का धंस झेल रही है, इस कारण से खत्म होती जा रही है। हर छानीयाँ, पहाडो़ से पलायन दर्शाने साथ-साथ इस बात की सच्चाई भी है कि हमारी पुश्तैनी संस्कृति व समाज को बहुत बड़ा नुकसान पहुंच रहा है। यह बात आप हम सब लोग जानते है।जहाँ हम आज अपनी सभ्यता व मूल संस्कृति के साथ-साथ अपने मुल्क की पुश्तैनी संस्कृति को पलायन करने से भूलते जा रहे हैं।
उसका खामियाजा या भारी नुकसान हम सभी को एक न एक दिन जरूर भुगताना ही पड़ेगा। वह चाहे जमीनी स्तर पर हो या फिर अपनी पूर्वजों की संजोयी पुश्तैनी संस्कृति व समाज से विलुप्त होने पर किसी एक दिन आने वाले भविष्य के लिए बहुत बड़ी मुसीबत को हम सबको उठानी पड़ेगी।
क्योंकि लोग जिस तरह से आज पलायन की इस सोसाईटी में इधर-उधर तितर-भितर हो रहे है, उससे लगता है कि आप और हम आज या कल तक अपना जीवन एक दिन कई बीता लेगें या इस समय को ल लुफा-छिपी के खेल में काट लेगें। लेकिन भविष्य की बयांवह स्थिति को हम सब लोग देखते हुए भी अपनी आजाद गांव की जमीन तथा घर, छानी, खेड़े आदि पुश्तैनी संस्कृति की सुंदर प्राकृतिक वातावरण खुश मिजाज के कल्चर को हम पलायन की बजह ले अपने मूल पैतृक गांव, घर व छानियों , खेड़ों को भूलते जा रहे। आधुनिक युग के इस दौर में या तो हम भावी पीढ़ी इस बात का अध्ययन ही सही नहीं कर पा रहे हैं कि हम यदि अपने गांव से बाहर शहर में जा रहे है और काम-धंधे के लिए तो उसके बाद वह व्यक्ति अपना खुद का एटमोसपियर ही बदल देता है कि मुझे अब गांव में नहीं रहना है।
क्योंकि यह उसकी सोच को लोगों की देखा-देखी से बन जाती है और वह फिर अपनी पुश्तैनी संस्कृति की दिशाओं से व जिम्मेदारी से मुंह फेरने का मन बना लेता है। मेरे कहने का मकसद यह है कि हम कई भी रहे, पर अपनी गांव, समाज व जमीनी स्तर की जो हमारी पुश्तैनी संस्कृति है। उसके लिए हम कम से कम अपने गांव, परिवार से जुड़ने का मनोबल जरूर बनाये रखे, ताकि गाँव में रहने वाले हमारे युवा साथी, भाई-बहन हमारे माता-पिता के सम्मान व खाका-काकी ,चाचा-चाची, ताऊ,भाई- भतीजा व बुर्जुंग दादा-नानी आदि लोग जो गांव की पुश्तैनी संस्कृति से जुड़े हैं। ताकि उनका एक मनोबल संस्कृति को जिंदा रखने के लिए बना रहे।
हो सकता है कि एक दिन जिस गांव, घर व छानी, खेड़ों की जमीन आदि को आज हम लोग पलायन के बजह से जिस मुल्क व गांव, घर छोड़ते जा रहे हैं, जिसकी बदौलत से आप हैश व आराम की सकुन जिंदगी बीता रहे हैं। वह गांव, घर एक आपको आपके हृदय की गहराईयों में चौट पहुंचाकर आपको दु:ख-पीड़ा का अनुभव भारी तरीके से दूबारा महसूस करायेगी। यह एक दिन जरूर ऐसा ही होगा, और वह दिन जरूर आयेंगें।
आज नहीं तो कल उस दिन ने आना ही है। वह चाहे पच्चास साल बाद आये या दस-पन्द्रह साल में ही वह दिन सामने आने लगे। इस प्रकार की अपनी विरासत की संजोयी हुई पुश्तैनी संस्कृति व समाज को हम अपने सामने छिन्न-भिन्न व टूटते हुए देखते हैं तो प्रत्येक व्यक्ति के मन व हृदय को बड़ी पीड़ा व दु:ख होता है।
आईए उस पुश्तैनी संस्कृति व समाज को हम सभी लोग जिंदा रहने के लिए प्रयास करते हैं इस प्रकार की विरासत से बिछुड़ने से हम लोगो बीच सामुदायिक परिवारों में क्यों परिवर्तन आयें है ?
क्या पुश्तैनी संस्कृति व समाज के लाभ व फायदे आज से 20 साल पहले थे? क्या लाभ व फायदे हम लोगों ने अपनी संजोयी हुई पुर्वजों की मूल संस्कृति व पुश्तैनी संस्कृति के पलायन होने पर छोड़ने व बिछुड़ने पर देखें है ? कितना बड़ा फर्क आया है, जरा आप भी इस बात का गौर कर सकते है? हम भले ही पढ़े-लिखे तो है।अच्छी शिक्षा पायी है, पर संस्काररित शिक्षा के ये मूल उद्देश्य से नहीं है। जो सामुदायिक व पारिवारिक जीवन के मेल-प्रेम व आपसी सुंदर भावनाओं को खत्म व छिन्न-भिन्न करती जा रही है।जहां हम इस प्रकार की छानियों व गांव, घरों व परिवारों में संयुक्त परिवार की तरह एक साथ रहते व जीने का काम करते थे। जहां एक-दूसरे के हर दुख-सुख के साथ जीया करते थे।
*लेखक व पत्रकार*
*मुकेश सिंह तोमर खुन्ना* *(बहलाड़)*
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