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पहाड़ की रीति-परंपराएं, संस्कृति-समाज हर दिन तेजी के साथ विलुप्त होती जा रही है। अपनी मीठ्ठी बोली-भाषा, गीत-बाजू, समाज की हर रीति -परंपरा और संस्कृति तथा सभ्यता का अस्तित्व इस प्रकार से खत्म होता जा रहा है कि जिस प्रकार समुद्र में जाकर नदियों के रूप आकार का कोई महत्व नहीं रह पाता है। आज हम जहां पर भी जाएं और रह रहे, वहां पर कई न कई अपनी इस संस्कृति की अनूठी परंपराओं की प्यास को बुझाना ना मुमकिन हो गया है। जब हम अपनी रीति-रिवाजों, गीत संगीत व संस्कृति की संदुर वर्णन की हर बारीकियाँ दूर प्रदेश में रहकर सुनते हैं तो बस हर व्यक्ति के मन में शायद यह प्रश्न जरूर उठता है कि आखिर जिस रीति-रिवाजों व संस्कृति के बीच पले-पढ़े है, क्या वह रीति-रिवाजों व संस्कृति आगे भविष्य के लिए बच भी पायेगी या नहीं? 


परिवर्तन भले ही समय की मांग है। और बदलाव भी होते है। लेकिन किसी भी क्षेत्र की रिति-रिवाज, परंपरा व संस्कृति के यदि जड़ से ही खत्म होती जा रही है। तो रिति-रिवाजों व पंरपराओं के बिना उस क्षेत्र की कोई खास महत्ता भी नहीं है। जहाँ हम लोग अपने मूल संस्कृति के हर पहलू को दिन-प्रतिदिन भूलते जा रहे हैं। वही हम लोग अपने  मान-मर्यादा व संस्कार की भावनाओं को भी मूल संस्कृति के बदलाव के साथ-साथ कई न कई खोने का काम कर रहे हैं। 

आप लोगों ने देखा होगा कि हमारे गाँव, समाज, क्षेत्र की  रीति-परंपराएं व संस्कृति यह सिखाती है कि हम आपस में एक-दूसरे के लिए बने हैं, और आपसी भाईचारा व सहमति के साथ जीने का काम हमारी मूल संस्कृति और सभ्यता हमें गर्व से हर पहलू के साथ गांव, समाज के बीच एक सूत्र में जोड़ने का तथा आपसी भाईचारे के साथ प्रेम व सद्भावना के साथ एक-दूसरे के सुख-दु:ख में जोड़ने  व अपनत्व की भावनाओं को मजबूत करने का प्रयास हमारी ये मूल संस्कृति करती है, जिसे हम भूलते जा रहे हैं।


 दुनियां के लोग जहाँ बड़े-बड़े मंच व समारोह करते हैं कि हम आपस में एक-दूसरे के लिए व साथ-साथ रहने का परिचय करें। वही हमारे क्षेत्र जौनसार बाबर की रिति-परंपराएं व मूल संस्कृति हमारे क्षेत्र के बच्चों के अंदर  जन्म से ही अच्छे मूल संस्कृति के संस्कारों के भावों को कूट-कूटकर भर देने का काम करती थी। 

यह सब आज पलायन के कारण से हो रहा है, या ये मानें कि लोगों का गांव, पहाड़ की तरफ वर्तमान पीढ़ी रहने के लिए इच्छुक ही नहीं है, और चाहते भी है कि हमारी रिति-परंपराएं व मूल संस्कृति भी विलुप्त न हो। अब आगे यह देखना होगा कि अपने पूर्वजों की बनाई क्या यह रिति-परंपराएं मूल संस्कृति और त्यौहार हमारे भविष्य की युवा पीढ़ी बचाने में कारगर सिद्ध हो पायेगी या नहीं? चिंता का विषय यह सबके सामने है। 

     *लेखक व पत्रकार*

*मुकेश सिहं तोमर खुन्ना** *(बहलाड़)*

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