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डा. रवीन्द्र अरजरिया


कोरोना काल में जहां आम आवाम की मानवीय संवेदनायें चरम सीमा पर रहीं, वहीं अधिकांश स्थानों पर प्रशासनिक क्रियाकलापों पर प्रश्नचिंह अंकित होते रहे। सूचना के अधिकार से बाहर होने की बात कहकर जबाबदेही पर मुकरना, उत्तरदायी अधिकारिकों के लिए आम बात हो गई है। सरकारों ने जो सुविधायें और धन आवंटित कराया, उसका विभागीय लेखाजोखा अवश्य ही पत्रावली माफियों ने तैयार कर लिया होगा परन्तु समाज के दानवीरों व्दारा भी एक बडी राशि प्रशासन को महामारी से राहत हेतु दी जाती रही है। 

उपकरणों से लेकर दवाइयों तक, राशन से लेकर भोजन तक, सुविधाओं से लेकर सहयोग तक में लगभग हर सक्षम नागरिक ने योगदान किया है। इस मध्य जरूरतमंदों से लेकर सेवामंदों तक को अनेक स्थानों पर न्यायाधीश के अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले अधिकारियों का कोप भाजक बनना पडा। कहीं दवा लेने जाने वाले पिटे तो कहीं मरीज को लेने जाने वाले निजी वाहन को थाने मेें खडा करवा दिया गया। लाकडाउन काल में सेवा करने वालों को कोरोना के आक्रमण से कहीं अधिक प्रशासनिक तानाशाही का खतरा रहता था। इस मध्य खाद्यान्न आवंटन से लेकर सहायता वितरण तक, चिकित्सीय सुविधाओं के विस्तार हेतु मिलने वाले उपकरणों से लेकर राशि तक एवं सरकारी योजनाओं के अनुपालन से लेकर प्रभावित लोगों को मिलने वाली सहयोग राशि तक में भारी अनियमिततायें उजागर हुईं है। मगर उत्तरदायी हेतु दण्ड की कौन कहे उन पर लगे आरोपों के प्रमाणित सबूतों तक को निरंतर अनदेखा किया जाता रहा। यदि मामले ने ज्यादा तूल पकडा तो फिर पारदर्शितता दिखाने हेतु किसी संविदाकर्मी की बलि चढा दी गई। 

वास्तविकता यह है कि तंत्र के अंदर ही दो तरह की मानसिकता पनप चुकी है। अधिकांश स्थाई सेवारत अधिकारी और कर्मचारियों का एक सशक्त गुट पूरी तरह से चिंता मुक्त है। अनियमिततायें बरतने पर भी उनकी न तो नौकरी प्रभावित होती है और न ही उन्हें दण्ड दिया जाता है। यही कारण है कि ऐसे गुट नेतागिरी, संगठन बनाने और सरकारों पर दबाव बनाने का ही काम करते हैं। मोटी तनख्वाह के ऐवज में मिली जिम्मेवारी भी बिना खास कारण के पूरी नहीं होती। इसके अलावा दूसरे हैं वे निरीह लोग, जो अपने जीवकोपार्जन हेतु लम्बे समय तक नौकरी की तलाश में भटकते रहे और बाद में उन्हें संविदा पर नौकरी मिली। वेतन भी कम, काम भी अधिक और असुरक्षा की मानसिक त्रासदी भी। समान काम करने पर समान वेतन की कौन कहे, स्थाई अधिकारियों और कर्मचारियों का गुट तो अपना काम भी संविदाकर्मियों पर ही थोपते देखे गये हैं। ज्यादा हुआ तो वरिष्ठों के माध्यम से संविदाकर्मी की संविदा समाप्त करवाने की धमकी का प्रयोग करवाना तो उनका बायें हाथ का काम है। संविदाकर्मी पुन: बेरोजगार होने का कल्पना करके ही सहम जाता है। 

यही वो डर है जिसका फायदा उठाकर स्थाईकर्मी निरंतर संविदाकर्मियों का शोषण करते चले आ रहे हैं।  विसम परिस्थितियां आने पर यह गुट अपने ऊपर लगे वाले सारे आरोप संविदाकर्मियों पर गढ देते हैं। स्थाई कर्मचारियों से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक ने अपने हितों की रक्षा हेतु संगठन बना रखे हैं। उनका झंडा ऊंचा होते ही सरकारें हिलने लगतीं हैं। हडताल, प्रदर्शन और घेराव जैसे हथकण्डे अपनाने में भी यह गुट कोताही नहीं बरतता। इसी तरह से कोरोना काल में प्रशासनिक अमला औरर समाजसेवियों का समूह दो अलग-अगल कार्यकारी इकाइयों रहीं। एक को निरंतर वेतन मिलता रहा भले ही उन्होंने काम किया हो या किया हो और दूसरा समूह स्वयं के खर्च पर लोगों के आंसू पौंछने का काम करता रहा। समाज सेवियों के गिलहरी के प्रयासों को आज भी समाज रेखांकित कर रहा है। 

दानवीरों के पास यदि कुछ आया तो स्वयं का संतोष लौटा, उसे लगा कि उसके दान को निश्चित ही जरूरतमंदों तक पहुंचाया गया होगा। मगर पारदर्शिता जानने का कोई जरिया न होने से वह सच्चाई जान ही नहीं सका। ऐसे में महामारी निवारण हेतु सरकारों व्दारा मिलने वाली सहायताराशि और दानवीरों के सहयोगराशि का सोशल नितांत आवश्यक हो गया है ताकि लोगों को वास्तविकता का पता चल सके। यह देश के सम्मानित नागरिकों का अधिकार भी है। इस सप्ताह बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।



Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
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