अध्यात्मिकता
और सांसारिकता का संतुलन है वैदिक परम्परायें
आधुनिकता के नाम पर
परम्पराओं की धूमिल होती स्थिति को सुखद कदापि नहीं कहा जा सकता। सांस्कृतिक
मूल्यों को समझे बिना उनका परित्याग करने की स्थिति निर्मित होती जा रही है। थोपी
जा रही विकृतियों की मृगमारीचिका के पीछे दीवानगी की हद तक दौड जारी है। स्वास्थ्य
के बहुआयामी मापदण्डों पर सामाजिक स्वास्थ्य को धनात्मक विकास, मानसिक स्वास्थ्य को मानवीय चिन्तन और शारीरिक
स्वास्थ्य को ऊर्जात्मक क्षमता के रूप में परिभाषित किया जाता है परन्तु इस तरह के
परम्परागत सिध्दान्त, आज किस्तों में कत्ल किये जा रहे हैं।
समाजवाद के स्थान पर व्यक्तिवाद, सकारात्मक चिन्तन के स्थान
पर सुखात्मक सोच और शारीरिक चैतन्यता के स्थान पर आलस्य का बोलबाला बढता ही जा रहा
है। दिनचर्या की अनियमितताओं ने व्याधियों को बिना बुलाया मेहमान बना दिया है। आज
इन सब विचारों ने यूं ही जन्म नहीं लिया बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिकता पर आधारित
तर्क, शब्दों की जुगाली कर रहे हैं। ज्योतिषीय पंचाग के
कार्तिक माह में अनुष्ठानिक स्नान का महात्म बताया गया है। वायुमण्डलीय परिवर्तनों
के कारण मौसम में होने वाले उतार चढाव से दैहिक संतुलन बिगडने लगता है। इसे
सम्हालने के लिए सूर्योदय के पूर्व सरोवर स्नान, ध्यान और
प्राकृतिक ऊर्जा की संंदोहनात्मक क्रियायें निर्धारित की गईं है। सरल भाषा में
समझाने के लिए कृष्ण के श्रंगारात्मक पक्ष के साथ गोपियों के कथानक को जोड दिया
गया। महिलायें गोपियों की भूमिका को जीवित करती है तो पुरुषों की टीम में एक
व्यक्ति कृष्ण और शेष गवालों के रूप में सामने आते है। श्रंगार का आकर्षण सौन्दर्य
का लावर्ण बनकर अठखेलियां करने लगता है। अमृत बेला में बिस्तर छोडकर सभी खुली हवा
में पहुंचते है। एकाग्रता हेतु कर्मकाण्ड का विस्तार किया जाता है। कथा-कहानियों
के माध्यम से साधना की परिणति परोसी जाती है और फिर शुरू हो जाता है अपनत्व के
हिंडोले पर झूलने का क्रम। अतीत की सुखद अनुभूतियां वर्तमान में स्पन्दन तो पैदा
करतीं है परन्तु टूटती मान्यताओं का दर्द भी सौगात में दे जातीं है। कार्तिक गीत
को गुनगुनाते महिला स्वरों को पदचापों का संगीत और हौले से बहता समीर अपनी संगत
देता था। सरोवरों पर भोर से भी पहले अनुष्ठानिक स्नान करने वालों की भीड का कोलाहल
गूंजता था। ताजे फूलों की सुगन्ध से परिपूर्ण पूजा की डोली में सजी थालियों में
दीपक की लौ स्याह रात में तारों के मानिन्द छटा बिखेरती थी। पुरुष घाट पर गवालों
की भूमिका में सजीव होते युवा दल अपने बनाव श्रंगार में लग जाते थे। महिलाओं की
अनुष्ठानिक प्रक्रिया पूर्ण होते ही गोपिकाओं को बांसुरी की तान पर रोकने का क्रम
चल निकलता था। गोपिकाओं और गवालों के मध्य काव्यमय संवाद होते थे। गोपियों के
व्दारा दही खिलाने और लगाने का आनन्दित वातावरण, इस दैनिक
आयोजन के उपसंघार की गोद में किलकारियां भरता था। सब कुछ अतीत था। सुखद, सम्पन्न और वैज्ञानिक भी। सोच चल ही रही थी कि फोन की घंटी बज उठी। फोन
रिसीव किया तो दूसरी ओर से बुंदेलखण्ड की जानीमानी समाजसेविका पुष्पा मिश्रा जी की
आवाज गूंजने लगी। औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हमने अपने मन में चल रहे
विचारों पर उनका दृष्टिकोण जानना चाहा तो उन्होंने एक लम्बी सांस भरते हुये कहा कि
यांत्रिक अविष्कारों के पीछे पागलपन की हद तक भागने वाले आज स्वयं से दूर होते जा
रहे हैं। परम्परागत मूल्यों को परखने में असफल है वैज्ञानिक कसौटी। इसके पीछे का
कारण यह है कि परम्पराओं का निर्धारण करने के पहले उन्हें सूक्ष्मता से जांचा गया,
परखा गया और फिर चन्द मानकों पर प्रयोग कर परिणाम प्राप्त किये गये।
अध्यात्मिकता और सांसारिकता का संतुलन है वैदिक परम्परायें। चिकित्सा विज्ञान से
लेकर मनोविज्ञान तक, पर्यावरण विज्ञान से लेकर मौसम विज्ञान
तक और सामाजिक विज्ञान से लेकर प्रबंध विज्ञान तक के सारे पैमाने पराविज्ञान के
आगे बौने पड जाते हैं। यही कारण है कि पराविज्ञान पर आधारित हमारे सांस्कृतिक
मूल्यों को आज विश्व स्वीकार रहा है और विडम्बना यह है कि हम उन्हें तिलांजलि दे
रहे है। इसे खुद के पैर पर कुल्हाडी मारना न कहें, तो क्या
कहें। उनके शब्द भर्राने लगे। आवाज से अहसास हुआ कि वे भावनाओं के बहाव की चरम
सीमा पर पहुंच चुकीं है। कुछ समय तक खामोश रहने के बाद उनका धीमा सा स्वर सुनाई
दिया कि अब फिर बात करेगें, क्षमा करियेगा इस समय हम सहज
नहीं है। हमने उन्हें प्रणाम करके फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। हमें अपने विचारों को
पुष्ट करने हेतु पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो चुकी थी। सुना था कि जब कुछ टूटता है
तो आवाज होती है परन्तु यहां तो बिना आवाज के ही परम्परायें टूट रहीं हैं, संस्कार मिट रहे हंै और समाप्त रहा है ज्ञान की पराकाष्ठा पर स्थापित
मूल्यों का अस्तित्व। विचार क्रान्ति अभियान के माध्यम से ही इसे बचाया जा सकता है
अन्यथा साइबर के घातक हथियार हमसे हमको ही छीन लेंगे, ठीक
वैसे ही जैसे आज विदेशियों से हम सीखने निकले हैं कृष्ण भक्ति। इस बार बस इतना ही।
अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। जयहिंद।
Dr. Ravindra Arjariya Accredited Journalist
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