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सराँव नृत्य:एक पौरणिक विधा ,जो गुम सी हो गयी

डा० महेन्द्र प्रताप सिंह 

यह हमारी एक पौराणिक विधा है। जो कि गढ़ नरेशों के बीर भडों के माध्यम से आम जन तक प्रचलन मेँ आई । पहले राजा जब किसी दुर्ग पर फ़तह के लिये जाते थे तो अपने रण बांकुरों के साथ ढाल-तलवार, ढोल -नंगाडे व दमांउ के साथ रणशिंगा की धुन और बड़े ही हुंकार के साथ रणभूमि को फ़तह कर आते थे ।

 युद्ध  में जाते समय सेना के आगे और पीछे दो ऊँचे व बड़े बड़े लाल और सफ़ेद झंडे (निशाण ) जिन पर विभिन्न टैबू (गोत्र चिन्ह ) बने रहते थे । यही प्रथा कालान्तर में शादी-ब्याह, मेला-खौला (कौथिग) व अन्य मंगल कार्यों मे भी चलने लगी और पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती गयी ।

मुझे याद है अपना बचपन जब गाँव में चैत्र मास में दिनभर काम समाप्त के बाद गाँव के सभी बच्चे बूढ़े और जवान, महिला-पुरुष हमारे चौक (थाड मा) रात भर बारी बारी से सराँव नृत्यों साथ साथ, थड्या, चौंफला, झुमैला गाते थे । और अन्त मे वैशाखी मेले , (२ गते वैशाख भौन का मेला, इडियाकोट तल्ला, पौडी गढ़वाल) से ठीक एक रात पहले तक मेरी ड्यूटी होती थी मिठाई के रूप में गुड बाँटने की।


रामनगर की सुन्दर ४-६ भेली लगती थी हमारे घर से।क्या समय था ! मन आज भी आनन्दित हो जाता है उन दिनों को याद कर । अब धीरे धीरे सब विधायें समाप्ति की ओर है । नयी पीड़ी कहीं खो सी गई इस नयी चकाचौंध में । आवश्यकता है उन्हें समझाने की और उस धरोहर को संरक्षित करने की ।


राजधानी में आते ही प्रयासरत हूँ , सम्पर्क कर रहा हूँ कोई तो आगे आये और इसे बचाये ।इसमें रोज़गार भी है और मनोरंजन भी । सरकार से भी आग्रह है । इस उम्मीद के साथ कोई तो रास्ता निकले ।


अनुग्रह --
 समाज में  छोटे लोग हमेशा बड़े लोगों की देखा देखी करते हैं ।  जब तक हमारे  समाज के उच्च पदों पर आसीन लोग अपनी भाषा संस्कृति व परम्पराओं को महत्व व सम्मान नहीं देंगे तब तक छोटे लोग भी नहीं देंगे।
इन दोनों महानुभाव ने यह नृत्य करके इस नृत्य को करने वालों  व वाद्ययंत्रों   को बजाने वालों को  सम्मान दिया है। इन दोनों महानुभाव को मेरा नमन


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