रूद्रप्रयाग :
इस दौर में एक तरफ जहाँ पहाड़ पलायन की मार से खाली होता जा रहा है वही दूसरी तरफ आधुनिकता की ओर पश्चिमी संस्कृति पाँव पसारने से हमारी सामाजिक धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराएं भी विलुप्त की ओर जा रही है। हालांकि कुछ समय से सोशियल मीडिया के माध्यम से गाहंे-बगाहे इन त्यौहारों की झलकियां देखने को मिल जाती हैं बावजूद व्यवहार में हम अपनी संस्कृति को नकारते जा रहे हैं। इसी तरह का एक त्यौहार है फूलदेई जिसे हिन्दू नव वर्ष आरम्भ होने की तिथि यानी चैत्र संक्रान्ति से मनाते हैं, लेकिन अब इस संस्कृति पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं इसी को संजोने की खास पहल की है दस्तक संस्था ने। देखिए खास रिपोर्ट-
पहाड़ आज पलायन का दंश झेल रहा है। यहां व्यापक रूप से गांव खाली होते जा रहे हैं जबकि दूसरी तरफ पहाड़ में पश्चिमी सभ्यता ने भी अपनी जड़े गहराई से जमा दी हैं जिस कारण हमारे पारम्परिक त्यौहार विलुप्त होने की कगार पर है। ऐसे ही एक त्यौहार है फूलदेई का। जिसे बच्चों द्वारा बसंत ऋतु के आगमन पर चैत्र मास की संक्रान्ति से मनाया जाता है। इस त्यौहार में बच्चे बसंत के फूल लेकर फूलदेई के गीत गाते हुए सुबह-सुबह प्रत्येक घर की देहरी में डालते हैं। खासतौर पर फ्यूली और बुँराश के फूल का इसमें बड़ा महत्व है। बदले बच्चों को कुछ ना कुछ दिया जाता है। लेकिन आज यह परम्परा अब कुछ कम हो गई है। इसी को जीवंत रखने के लिए पिछले नौ वर्षों से दस्तक संस्था प्रयासरत है।
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.दस्तक परिवार द्वारा हर वर्ष फूलदेई का त्यौहार धूम-धाम से मनाया जाता है। जिसमें जनपद के विभिन्न गाँवो, विद्यालयों की टीमों को बुलाकर एक प्रतियोगिता करवाई जाती है। प्रतियोगिता में फूलदेई त्यौहार में होने वाली सभी गतिविधियों प्रतिभागी बच्चों द्वारा दर्शायी जाती है। फूलारी गीत को पुनः जीवत करने और पहाड़ की वर्तमान परिस्थिति में उसे दर्शाने वाले पांडवाज ग्रुप ने भी इस कार्यक्रम में सिरकत की। उन्होंने कहा कि दस्तक जैसे अनूठे प्रयास ही हमारी संस्कृति को आने वाली पीढ़ियों से रूबरू करवा सकती हैं।
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. दस्तक परिवार द्वारा फूलदेई महोत्सव के मौके पर हर साल पहाड़ की एक ऐसी जीवटता को सम्मानित किया जाता है जो वास्तव में उम्मीदों के पहाड़ की तरह है और इसी कड़ी में इस बार दस्तक परिवार ने जखोली विकासखण्ड की लावड़ी गांव की 68 वर्षीय चकौरी देवी को सम्मानित किया है। चकौरी देवी मूलतः बेड़ा गीतों की गायिका है जो इन गीतों की अब अंतिम जानकारों की पीढ़ी से है। उत्तराखण्ड के गढ़वाल-कुमाऊँ जौनसार में गीत संगीत को सदियों से जीवंत बनाने में यहां के बाद्दी (बेडा) मिरासी, ढाक्की समुदाय की अद्वितीय भूमिका रही है। चकौरी देवी कहती हैं अब नई पीढ़ि बेड़ा गीतों को पसंद नहीं करती हैं जिस कारण यह संस्कृति भी अब अंतिम सांसे गिन रही है।
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. परंपराओं से जुड़ना, सहेजना और उन्हें नयी पीढ़ी तक पहुँचाना वास्तव में दस्तक की यह अनूठी पहल, ऐसे समय में जब हम आधुनिकता की भेंट चढ़कर अपने रीति रिवाज, परंपराओं और खासकर भावनाओं को नकारने पर तुले हैं वास्तव में दस्तक अपनी संस्कृति को जड़ों से जोड़ रहा है। जरूरत है व्यापक स्तर पर अपने संस्कृतिक परंम्पराओं को जीवित रखने के लिए ऐसी ओनेखी पहल करने की।
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