लोसर के रंग में रँगे, डुण्डा के भोटिया समुदाय।।
मेहमानों को प्रसाद के रूप में परोसी जाती छंग ।।
तिब्बती पंचाग के आधार पर मनाया जाता है लोसर पर्व।।
चिरंजीव सेमवाल
उत्तरकाशी;
उत्तराखण्ड में विभिन्न सांस्कृतिक मान्यताओं और त्योहारों का अनूठा संगम है। अपनी सांस्कृति परम्पराओं के लिए प्रसिद्व उत्तराखंड राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में आजकल तिब्बती पंचांग के अनुसार नये वर्ष लोसर की धूम है। यह त्यौहार उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, देहरादून, चमोली आदि स्थानों पर रहने वाले इस समुदाय के लोगों द्वारा मनाया जाता है।
भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़े भोट क्षेत्र के लोग जिसे वर्तमान में तिब्बत कहा जाता है से यहां के पहाड़ी स्थानों पर व्यापार के लिये आते थे। किंतु 1962 के बाद चीन की सीमायें बंद होने तथा पुरातन काल से ही यहां के बसने के कारण इस समुदाय के लोग पूरी तरह से यही की रचबस गये। हालांकि वे अपने रीति-रिवाज को आज भी नहीं भूले। वीरपुर डुण्डा, बगोरी में रह रहे जाड़-भोटिया समुदाय के लोग तिब्बती पंचांग के अनुसार नये साल का आगाज अपने ही अंदाज में करते हैं। हालांकि उनकी संस्कृति का यहां की पहाड़ी लोक संस्कृति से भी अच्छा मिलन हुआ है।
सदियों से मनाये जाने वाले लोसर माघ -फाल्गुन माह की आमवस्या के दिन से बडे हर्षोल्लास के साथ तीन दिन तक मनाया जाता है। समुदाय के लोग दीपावाली की तरह अपने घरों की साफ-सफाई कर दीप, मालाओं से सजाते हैं। गांव के सभी महिलायें, पुरूष, युवक, युवतियां व बच्चे छुलके;मशालें जलाकर एक स्थान पर अग्निकुण्ड में समर्पित करते है। इस त्यौहार के तीसरे दिन होली के रूप में मनाया जाता है जिसमें रंगों की जगह आटे का इस्तेमाल किया जाता है। त्योहार की समाप्ति के दिन पूरे विधि-विधन से रंग-बिरंगे कपडों से बने पुराने झण्डों को उतार नये प्रार्थना लिखे झंड़ों को अपने घरों की छतों पर लगाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि हवा में लहराती झंड़ियों पर लिखि प्रार्थना भगवान तक आसानी से पहुंचती है। सुख समृद्वि व शांति की कामनाओं के साथ लोसर पर पूरे गांव में जश्न का माहौल रहता है तथा गांव में मिठाईयों के साथ ही अपने घर आने वाले मेहमानों के लिये प्रसाद के तौर विशेष रूप से तैयार छंग को मक्खन के साथ परोसा जाता है। छंग बनते समय पवित्रता का ध्यान रखते हुए इसे पहले देवताओं को समर्पित किया गया। वीरपुर डुंडा में रिंगाली देवी मंदिर में की डोली एवं समेश्वर की पालगी को ढाल-दमाऊ की थाप पर पारंपरिक लोकनृत्य करते है। यह त्योहार भाईचारा व प्रेम का एक सच्चा रूप है। है इसी लिये लोसर के त्योहार के लिये यहां के निवासी दूर-दूर से खीच चले आते है।
मेहमानों को प्रसाद के रूप में परोसी जाती छंग ।।
तिब्बती पंचाग के आधार पर मनाया जाता है लोसर पर्व।।
चिरंजीव सेमवाल
उत्तरकाशी;
उत्तराखण्ड में विभिन्न सांस्कृतिक मान्यताओं और त्योहारों का अनूठा संगम है। अपनी सांस्कृति परम्पराओं के लिए प्रसिद्व उत्तराखंड राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में आजकल तिब्बती पंचांग के अनुसार नये वर्ष लोसर की धूम है। यह त्यौहार उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, देहरादून, चमोली आदि स्थानों पर रहने वाले इस समुदाय के लोगों द्वारा मनाया जाता है।
भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़े भोट क्षेत्र के लोग जिसे वर्तमान में तिब्बत कहा जाता है से यहां के पहाड़ी स्थानों पर व्यापार के लिये आते थे। किंतु 1962 के बाद चीन की सीमायें बंद होने तथा पुरातन काल से ही यहां के बसने के कारण इस समुदाय के लोग पूरी तरह से यही की रचबस गये। हालांकि वे अपने रीति-रिवाज को आज भी नहीं भूले। वीरपुर डुण्डा, बगोरी में रह रहे जाड़-भोटिया समुदाय के लोग तिब्बती पंचांग के अनुसार नये साल का आगाज अपने ही अंदाज में करते हैं। हालांकि उनकी संस्कृति का यहां की पहाड़ी लोक संस्कृति से भी अच्छा मिलन हुआ है।
सदियों से मनाये जाने वाले लोसर माघ -फाल्गुन माह की आमवस्या के दिन से बडे हर्षोल्लास के साथ तीन दिन तक मनाया जाता है। समुदाय के लोग दीपावाली की तरह अपने घरों की साफ-सफाई कर दीप, मालाओं से सजाते हैं। गांव के सभी महिलायें, पुरूष, युवक, युवतियां व बच्चे छुलके;मशालें जलाकर एक स्थान पर अग्निकुण्ड में समर्पित करते है। इस त्यौहार के तीसरे दिन होली के रूप में मनाया जाता है जिसमें रंगों की जगह आटे का इस्तेमाल किया जाता है। त्योहार की समाप्ति के दिन पूरे विधि-विधन से रंग-बिरंगे कपडों से बने पुराने झण्डों को उतार नये प्रार्थना लिखे झंड़ों को अपने घरों की छतों पर लगाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि हवा में लहराती झंड़ियों पर लिखि प्रार्थना भगवान तक आसानी से पहुंचती है। सुख समृद्वि व शांति की कामनाओं के साथ लोसर पर पूरे गांव में जश्न का माहौल रहता है तथा गांव में मिठाईयों के साथ ही अपने घर आने वाले मेहमानों के लिये प्रसाद के तौर विशेष रूप से तैयार छंग को मक्खन के साथ परोसा जाता है। छंग बनते समय पवित्रता का ध्यान रखते हुए इसे पहले देवताओं को समर्पित किया गया। वीरपुर डुंडा में रिंगाली देवी मंदिर में की डोली एवं समेश्वर की पालगी को ढाल-दमाऊ की थाप पर पारंपरिक लोकनृत्य करते है। यह त्योहार भाईचारा व प्रेम का एक सच्चा रूप है। है इसी लिये लोसर के त्योहार के लिये यहां के निवासी दूर-दूर से खीच चले आते है।
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