झलकने लगा है स्वाभिमान के साथ राष्ट्र निर्माण का विश्वास
डा. रवीन्द्र अरजरिया
स्वाधीनता के बाद देश में गणतंत्र लागू हुआ। तंत्र को सुव्यवस्थित करने के लिए गण के प्रतिनिधि बनकर संविधान सभा ने विश्व के ज्यादातर कानूनों का अध्ययन कर संविधान की रचना की। संविधान को लागू करने वाले दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। वर्तमान में गण ने एक बार फिर तंत्र के ठेकेदारों को आइना दिखाना शुरू दिया। राज्यों के चुनावों में बानगी मिल गई है। हार और जीत की अलग-अलग समीक्षायें की जाने लगीं है। भावनात्मक देश को एक बार फिर बहाने की मुहिम तेज होने लगी है। नये नियमों के निर्धारण से लेकर आरक्षण तक यात्रा से सदन के सत्तासीनों ने पांसा फैक दिया है। सत्ताधारियों की खामियों से हालिया चुनावों में विजय पाने वाले, श्रेय लेने की होड में लगे हुए हैं। महाकुम्भ से लेकर इस गणतंत्र दिवस तक को लोक लुभावन बनाने की कोशिशें चरम सीमा पर है। वास्तविकता तो यह है कि औपचारिकताओं में सिमटा यह राष्ट्र्रीय पर्व, केवल सरकारी मशीनरी पर निर्भर होकर रह गया है। कानूनों की बंदिशों में जकडे पर्व का सैद्धान्तिक स्वरूप ही सामने आने लगा है। शुरूआती दौर में व्यक्तिगत जुडाव वाले इस उत्सव को भी, समय के साथ अपने स्वरूप में परिवर्तन करने के लिए बाध्य होना पडा। लम्बे समय से प्रदेश की राजधानी से लिखकर आये भाषण का वाचन, तिरंगे की अठखेलियों के मध्य मासूमों के रंगारंग कार्यक्रमों हेतु मजबूर स्कूल, झांकियों के लिए आवंटित बजट को खर्च करने के नियम, कर्मचारियों की अनिवार्य उपस्थिति का कानून, सांध्यकालीन कार्यक्रमों के नाम पर कुछ खास कलाकारों की शासकीय प्रस्तुतियां जैसे कारक ही देखने को मिल रहे हैं। आम आवाम की स्वतः उपस्थिति कहीं विलुप्त सी हो गई है। उत्साह और उल्लास तो हासिये पर ही पहुंच गया है। जीवन्त राष्ट्र-प्रेम भी अधोमुखी हो रहा है। अन्तःपरिवेश का विवेचन, राष्ट्र के संवैधानिक की पुनर्समीक्षा मांगता रहा। मध्यम वर्ग की सांसों पर शासकीय पहरे की गहराती छाया ने असंतोष के स्वर मुखरित करने शुरू कर दिये हैं। कानून को मानने वालों पर कडाई का चाबुक और धता बताने वालों को दुलार की सरकारी की दोगली नीतियों को आत्मघाती कहना अतिशयोक्ति न होगा। विभिन्न करों से जुटाये जाने वाले सरकारी धन को ठेकेदारों की मर्जी पर खर्च करके राजनैतिक विसातें बिछाई जा रहीं है। ऐसे में लाल किले का ध्वजारोहण आगामी पर्व के हाथों पर अटकलें लगा रहा है। अब लगता है कि गण ने तंत्र को दिशा देने का निर्धारण कर ही लिया है। स्वाभिमान से साथ राष्ट्र निर्माण का विश्वास झलकने लगा है। इसे शुभ संकेत कहना निश्चित ही समाचीन होगा। वास्तव में जागरूकता किसी कानफोडू नारे या सरकार द्वारा खर्च किये जाने वाले बडे बजट से नहीं आती बल्कि नागरिकों के सामूहिक संकल्प से आती है और वह संकल्प फलीभूत होता दिखने भी लगा है। इसी संकल्प के सुखद परिणाम की आकांक्षा के साथ गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।
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