क्यों नहीं हो पाता समस्यारहित मतदान ?
सामयिक हस्ताक्षेप / डा. रवीन्द्र अरजरिया
विधानसभा चुनावों में अधिकांश मशीनें मतदान के दौरान खराब होती रहीं। छत्तीसगढ
हो या मध्यप्रदेश, राजस्थान हो या तेलंगाना, शायद ही कोई राज्य या जिला ऐसा बचा हो
जहां मशीनें खराब न हुई हो। मतदान रुक-रुक कर होता रहा। मतदाताओं के सब्र की परीक्षायें
बार-बार ली जातीं रहीं। मरम्मत के नाम पर कभी अनजाने विशेषज्ञों का दल उन पर हाथ
साफ करता रहा, तो कभी मशीनों को बदलकर काम चलाने की स्थिति निर्मित होती रही। तकनीकी
खराबी के नाम पर लाइन में लगे लोगों को लम्बा इंतजार करना पडा। मशीनों को लेकर आरोपों-प्रत्यारोपों
का दौर चल निकला। अभी से अटकलों का बाजार गर्म होने लगा। एग्जिट पोल देने वालों की
भी लम्बी श्रृंखला मैदान में कूद कर चौपालों की चिन्ताओं को गहराने लगीं। इन सभी
परिस्थितियों के मध्य एक यज्ञ प्रश्न प्रगट होता है जिसे लगभग सभी ने अभी तक
नजरंदाज ही किया है। वह है ईवीएम की मरम्मत के लिए किस संस्था की सेवायें ली जा
रहीं है, उस संस्था के आला लोग किस मानसिकता के हैं, सेवायें देने वाले तकनीकी
व्यक्ति की प्रकृति क्या है, संस्था के लोग किस दल या विचारधारा से प्रभावित है, सेवायें
लेने के पहले क्या संबंधित लोगों की विस्त्रित जानकारी एकत्रित की गई है, इस तरह
के अनेक सवाल खडे होते है। हर चुनाव में जब मशीनों निरंतर खराब हो रहीं है, तो फिर
इस समस्या के पूर्ण निदान के प्रयास क्यों नहीं किये जाते और यदि पूर्ण निदान की
सम्भावना नहीं हो, तो वैकल्पिक व्यवस्था की दिशा में कोशिशें शून्य क्यों हैं। अधिकांश
विकसित देशों में ईवीएम के स्थान पर मतपत्रों का उपयोग किया जा रहा है। उस पद्धति
को आधुनिक तकनीक के साथ जोडकर सीसीटीवी आदि के माध्यम से ज्यादा प्रमाणित बनाया जा
सकता है। इस तरह की सभी रचनात्मक संभावनाओं को खंगाल कर सार्थक परिणामों तक पहुंचा
जा सकता है। देश के निर्वाचन आयोग ने अपने जिम्मेवार अधिकारियों, विशेषज्ञों और
तकनीकी सलाहकारों के साथ मिलकर अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया, यह
आश्चर्य की बात है। वेतन के रूप में बडी धनराशि, सुविधाओं के रूप में वातानुकूलित
साधन और अधिकारों के रूप में न्यायालय के समतुल्य सीमायें प्राप्त होने के बाद भी
लोकतंत्र के नवीनतम स्वरूप के निर्धारण में हर बार विवादों की लम्बी फेरिश्त सामने
क्यों आती है। कई बार तो न्यायपालिका तक को दखल देना पडता है। विधायिका के सदनों
में तो इस संदर्भ में अक्सर तू-तू मैं-मैं होती ही रहती है। कार्यपालिका तो आयोग
के निर्देशों का अक्षरशः पालन करने के अलावा कुछ कर ही नहीं सकती। शेष बचा जनमान्य
चौथा स्तम्भ यानी पत्रकारिता, तो वह भी राष्ट्रीयस्तर पर चन्द व्यवसायिक हाथों में
सीमित होकर रह गया है। धरातली सत्य को उजागर करने वालों की सुनता ही कौन है। उसे
तो मीडिया के कई बडे घराने पत्रकारिता मानने तक को तैयार नहीं होते। छोटे और मध्यम
श्रेणी के समाचार पत्रों की कतरनें अब महात्वहीन होकर रह गईं है। ऐसे में मतदान से
लेकर मतगणना तक आरोपों-प्रत्यारोपों का बाजार कुछ समय तक गर्म रहता है और फिर समय
की मरहम के नीचे सब कुछ समाप्त हो जाता है, प्रकृति की नियत बनकर।
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