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पितृ प्रसन्न तो बरकत बरसेगी

श्राद्ध, संस्कृति का उतना ही प्राचीन अंग है, जितनी प्राचीन भारतीय संस्कृति है। वेदों में पितृयज्ञ का वर्णन आया है, जो पितृ श्राद्ध का ही पर्याय है। अथर्ववेद में भी इसका उल्लेख हैं :--

पितृणां लोकमपि गच्छन्ति ये मृता:।
जो मृत हैं वे पितरों के लोक को जाते हैं।

पितृपक्ष आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से प्रारंभ होकर अमावस्या तक रहता है। इस पक्ष में विशेष रूप से पितरों का श्राद्ध और तर्पण आदि होता है। मनुष्यों के लिए मुख्य तीन ऋण शास्त्रों में वर्णित हैं। देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। यज्ञादि के द्वारा देवऋण, स्वाध्याय के द्वारा ऋषिऋण उतारा जाता है और पितृऋण श्राद्ध के द्वारा उतारा जाता है। इस ऋण का उतारा जाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि जिन माता-पिता ने हमें उत्पन्न किया, हमारी आयु, अरोग्य और सुख-सौभाग्य आदि की अभिवृद्धि के लिए अनेक कार्य एवं प्रयास किये उनके ऋण से मुक्त न होने पर हमारा जन्म निर्थक होता है।

श्राद्ध शब्द का अर्थ है श्रद्धा से किया जाए। श्रद्धापूर्वक अन्य कार्य भी किये जा सकते हैं परंतु यह शब्द पितरों के लिए किये गये पिंडदान आदि के अर्थ में रूढ़ हो गया है। मृत्यु के उपरांत और्ध्वदैहिक क्रिया के साथ पिण्डदानादि भी श्राद्ध ही के अंतर्गत आते हैं परंतु जिस तिथि को माता-पिता आदि की मृत्यु हुई हो पितृपक्ष में उसी दिन श्राद्ध करना वांछनीय है।

सर्वसुलभ जल, तिल, यव, दुग्ध, कुश और पुष्प आदि से तर्पण और श्राद्ध संपन्न करना, गो-ग्रास देना, ब्राह्मण भोजन कराना, श्राद्ध संबंधी कार्य है। इस सरलता से होने वाले कार्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। पिण्डदान की क्रिया मध्याह्न में अधिक फलदायिनी होती है। इससे पितृगण प्रसन्न रहते हैं। उनकी प्रसन्नता के फलस्वरूप श्राद्ध करने वाले को धन, धान्य, सुख, संपत्ति एवं पुत्र-पौत्रदि की प्राप्ति होती है।

पिण्डदान मृत्यु तिथि के दिन ही किया जाता है। देवताओं और ऋषियों को जल देने के बाद पितरों को जल देकर तृप्त किया जाता है। नियमित रूप से संध्या करने वाले तो सदा ही तर्पण करते हैं। जिन लोगों की मृत्यु की तिथि ज्ञात न हो उनका श्राद्ध अमावस्या को करना चाहिए। विशिष्ट श्राद्धों के लिए कुछ नियम हैं। नवमी माता के श्राद्ध के लिए पुण्यदायी मानी गई है, युद्ध में और शस्त्रदि से मरे हुए व्यक्तियों का श्राद्ध चतुर्दशी को करने का विधान है।

कहां करें श्राद्ध

श्राद्ध के लिए सबसे पवित्र स्थान गया तीर्थ है जो फल्गु नदी के तट पर बसा हुआ है। धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि पितृपक्ष में इस पवित्र स्थान पर पिण्डदानादि श्राद्ध कर्म करने से पितरों की मुक्ति हो जाती है। वे प्रेत योनि अथवा अन्य योनियों से छुटकारा पा जाते हैं। जिस प्रकार पिता के पिण्डदान के लिए गया परम पुण्यदायी है, उसी प्रकार माता के निमित्त सौराष्ट्र में सिद्धपुर या हरियाणा में पेहवा उत्तम माना गया है। इस पुण्य क्षेत्र में माता का श्राद्ध करके पुत्र अपने मातृ ऋण से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाता है। सेतुबंध रामेश्वरम् पर श्राद्ध करना भी उत्तम है। किसी पवित्र नदी के तट पर तीर्थ स्थान पर या पवित्र एकान्त स्थान में भी श्राद्ध विधि संपन्न की जा सकती है।

श्राद्ध के दिनों को महालय भी कहते हैं। इन दिनों नवीन वस्तुएं नहीं खरीदते और न प्रयोग करते।

श्राद्ध के अधिकारी

श्राद्ध का अधिकार पुत्र को है। पुत्र के अभाव में पौत्र और उसके अभाव में प्रपौत्र अधिकारी है। पुत्र के अभाव में पत्नी भी श्राद्ध कर सकती है। इसी प्रकार पत्नी का श्राद्ध पति भी कर सकता है। यदि पिता के अनेक पुत्र हों तो ज्येष्ठ पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए। यदि भाई अलग-अलग रहते हों तो वे सभी कर सकते हैं। किंतु संयुक्त रूप से एक ही श्राद्ध करना अच्छा है। पुत्र परंपरा के अभाव में भाई तथा उसके पुत्र को भी अधिकार है। यदि कोई विहित अधिकारी न हो तो कन्या का पुत्र या परिवार का कोई उत्तराधिकारी श्राद्ध कर सकता है।

जीवन की चिंता को सभी करते हैं किंतु परलौकिक दृष्टि से इस प्रकार का सूक्ष्म विवेचन हिंदुओं के सामाजिक जीवन की अपनी विशेषता है। श्राद्धों का इसमें अद्भुत महत्व है।

तर्पण तथा पिण्डदान केवल पिता के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि पितामह, प्रपितामह अर्थात् दादा और परदादा, माता, दादी और परदादी, नाना, परनाना और परनाना के पिता तथा नानी, परनानी और परनानी की माता के लिए भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त चाचा, ससुर आदि संबंधियों को भी जल देने का विधान है। साथ ही कुल परिवार तथा संबंध के ऐसे लोगों को भी जल दिया जाता है जिन्हें जल देने वाला कोई न हो। हिंदू जाति की विशाल हृदयता का यह अति उज्जवल प्रमाण है।

आयु: प्रज्ञां धनं वित्तं स्वर्ग मोक्षं सुखानि च।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृ पृजनात्।।

अर्थात् पितरों का श्राद्ध करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र, पौत्रदि, यश, स्वर्ग, मुक्ति, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख, साधन और धन-धान्यादि प्राप्त करता है।

इस संबंध में उल्लेख है कि पितृ पक्ष में जब सूर्य कन्या राशि पर होते हैं तब पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वी पर आते हैं। प्रत्येक सद्गृहस्थ का धर्म है, वह पितृ पक्ष में अपने पितरों के उद्देश्य से पिण्डदान एवं तर्पण अवश्य करें। अपनी शक्ति के अनुसार फल आदि से जो भी संभव हो उनके निमित्त अपनी शक्ति के अनुसार फल आदि से जो भी संभव हो उनके निमित्त प्रदान करें।

‘अतो मूलै: फलैर्वापि तथाप्युदकतर्पणै:।
पितृ तृष्टिं प्रकुर्वीत नैव श्रद्धं विवजर्येजत्।।

श्राद्ध विधान

निर्णयसिंन्धु में बारह प्रकार के श्राद्ध लिखे हैं।

 नित्यश्रद्ध: नित्य श्राद्ध  का विधान

नैमित्तिक : यह श्राद्ध विशेष अवसर पर किया जाता है जैसे पिता आदि की मृत्यु तिथि के दिन इसे एकोद्दिष्ट कहा जाता है। इसमें विश्वेदेवा की पूजा नहीं होती केवल एक पिण्ड मात्र दिया जाता है। नैमित्तिक श्राद्ध प्रतिनिधि द्वारा भी किया जाता है।

काम्य : किसी कामना विशेष के लिए ‘काम्य श्राद्ध’ किया जाता है, जैसे पुत्र की प्राप्ति आदि।

वृद्धि श्राद्ध : सौभाग्य की वृद्धि के लिए यह श्राद्ध किया जाता है।

सपिंडन : मृत व्यक्ति के बारहवें दिन पितरों में मिलाने के लिए इसे स्त्रियां भी करती हैं।

पार्वण : पिता, पितामह, प्रपितामह सपत्नीक और मातामह, प्रमातामह, वृद्ध प्रमातामह सपत्नीक के निमित्त होता है। इसमें दो विश्वेदेवा की पूजा होती है।

गोष्ठी श्राद्ध : यह कुटुम्ब के लोगों के एकत्र होने के समय किया जाता है।

शुद्धयर्थ : शुद्धता के लिए किया जाता है। पितरों के प्रतिनिधि रूप में परिमित संख्यक ब्रह्मणों को भोज दिया जाना इस श्राद्ध का मुख्य अंग है।

कर्माग : यह श्राद्ध किसी संस्कार के अवसर पर किया जाता है।

दैविक : देव पूजा के अवसर पर मंदिर अथवा तीर्थ स्थल पर किया जाता है।

यात्रार्थ : यात्रा पूर्व अथवा यात्रा की संपन्नता पर किया जाता है।

पुष्ट्यर्थ : स्वास्थ्य लाभार्थ किया जाता है।

जल में तिल जालकर वृक्ष में तर्पण करें,तर्पण का मंत्र--

अश्वस्थ: सर्व वृक्षाणाम्
देवर्षीणाम् च नारद:
तिलतोय प्रदानेन
प्रीता सन्तु पितरो मम।
ब्राह्मण भोजन-मंत्र
ऊँ प्रमादात् कुर्वतां कर्म
प्रच्यवेताध्वरेषु च
स्मरणादेव तद्विष्णो:
सम्परूण स्यादिति स्मृति

पूर्णिमा से अमावस्या के ये 15 दिन पितरों को कहे जाते हैं। इन 15 दिनों में पितरों को याद किया जाता है और उनका तर्पण किया जाता है। श्राद्ध को पितृपक्ष और महालय के नाम से भी जाना जाता है। इस साल 24 से 8 अक्टूबर तक श्राद्धपक्ष रहेगा। जिन घरों में पितरों को याद किया जाता है वहां हमेशा खुशहाली रहती है। इसलिए पितृपक्ष में पृथ्वी लोक में आए हुए पितरों का तर्पण किया जाता है। जिस तिथि को पितरों का गमन (देहांत) होता है उसी दिन पितरों का श्राद्ध किया जाता है। 

जानिए किस तिथि को कौन सा श्राद्ध आएगा

24 सितंबर 2018 पूर्णिमा श्राद्ध
25 सितंबर 2018 प्रतिपदा श्राद्ध
26 सितंबर 2018 द्वितीय श्राद्ध
27 सितंबर 2018 तृतिया श्राद्ध
28 सितंबर 2018 चतुर्थी श्राद्ध
29 सितंबर 2018 पंचमी श्राद्ध
30 सितंबर 2018 षष्ठी श्राद्ध
1 अक्टूबर 2018 सप्तमी श्राद्ध
2 अक्टूबर 2018 अष्टमी श्राद्ध
3 अक्टूबर 2018 नवमी श्राद्ध
4 अक्टूबर 2018 दशमी श्राद्ध
5 अक्टूबर 2018 एकादशी श्राद्ध
6 अक्टूबर 2018 द्वादशी श्राद्ध
7 अक्टूबर 2018 त्रयोदशी श्राद्ध, चतुर्दशी श्राद्ध
8 अक्टूबर 2018 सर्वपितृ अमावस्या

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें

आचार्य देवेन्द्र प्रसाद भट्ट(देव जी भट्ट) निवास पाली बागी निकट बागेश्वर महादेव मन्दिर भोगपूर रानीपोखरी देहरादून  उत्तराखंड

9690551777

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