रुद्रप्रयाग;
श्रावण माह में कई दिन बाद कल केदार बाबा के दर्शनों को धाम में लंबी लाइन देखने को मिली। कांवड़ियो के आगमन से बाबा का स्थान आच्छादित हो रहा है, एक और जहां बम भोले का नाद सर्वत्र गूंज रहा है वहीं दूसरी और केदारनाथ धाम में 2013 में काल के मुंह मे समाई दिवंगत आत्माओं के लिए श्री महा शिवपुराण का चौथा दिन था।
मंदिर समिति के मुख्य कार्याधिकारी बी.डी.सिंह ने केदारनाथ से बताया कि दिल्ली के दानीदाता महेन्द्र शर्मा के सहयोग से यह कथा आयोजित हो रही है। 2013 की केदारनाथ आपदा में दिवंगत आत्माओं की शांति हेतु 4 वर्षों से निरंतर सावन माह में महाशिव पुराण का आयोजन हो रहा है।
चथुर्थः दिवस की शुभ बेला पर ज्योतिर्पीठ से अलंकृत व्यास श्री दीपक नौटियाल जी द्वारा
शिव पार्वती विवाह कथा का सुन्दर वर्णन किया गया जिसे सुन कर श्रदालुओं के आखों में अश्रु धारा बहने लगी जब उन्होंने सुन्दर मांगल गीतों को सुना
सती के वियोग में शंकरजी की दयनीय दशा हो गई
शिव हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते। उधर सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेकर शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँगी।
जगत जननी जगदम्बा का संकल्प व्यर्थ होने से तो रहा। वे उचित समय पर राजा हिमालय कि पत्नी मेनका के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख में से प्रकट हुईं। पर्वतराज कि पुत्री होने के कारण मां जगदम्बा इस जन्म में पार्वती कहलाईं। जब पार्वती बड़ी होकर सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को योग्य वर तलाश करने की चिंता सताने लगी।
एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और पार्वती को देख कहने लगे कि इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से इसके योग्य हैं। पार्वती के माता-पिता को नारद ने जब यह बताया कि पार्वती साक्षात जगदम्बा के रुपमें इस जन्म में आपके यहा प्रकट हुइं हैं। उनके आनंद ठिकाना न रहा।
एक दिन अचानक भगवान शंकर सती के वियोग में घूमते-घूमते हिमालय प्रदेश में जा पहुँचे और पास हि कि गंगावतरण में तपस्या करने लगे। जब हिमालय को इसकी जानकारी मिली तो वे पार्वती को लेकर शिवजी के पास गए। राजा ने शिवजी से विनम्रतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिवजी ने पहले तो आनाकानी की, किंतु पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह नहीं टाल पाये। शिवजी से अनुमति मिलने के बाद तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले शिवकी सेवा करने लगीं। पार्वती इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि शिवजी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। पार्वती प्रतिदिन शिव के चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं। इसी तरह पार्वती को भगवान शंकर की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया। किन्तु पार्वती जैसी सुंदर बाला से इस प्रकार एकांत में सेवा लाभ लेते रहने पर भी भगवान शंकर के मन में कभी विकार नहीं उतपन्न हुआ।
शिव हमेशा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते। उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा था। ब्रह्मा जी ने उस सभी देवता को बताया, इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के तेज़ से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती हैं। सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने का प्रयास करने लगे। देवताओं ने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किन्तु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटा कामदेव शिवकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गए।
इसके बाद शंकर भी वहाँ अधिक नहीं रहना चाहते थे इस लिये शिव कैलास की ओर चल दिए। पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा शंकर को संतुष्ट करने की मन में ठानी।
उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, किन्तु पार्वती पर इसका कोई असर नहीं हुआ। पार्वती अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं। माता पर्वती भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी।
शिखर पर तपस्या में पर्वतीने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे वृक्षों के पत्ते खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया।
इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की। पार्वती कि कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए। अंत में भगवान भोले का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।
जब शिवने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती कि उनमें अविचल निष्ठा हैं, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरंत अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अंतर्धान हो गए।
पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा। उधर शंकरजी ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित होगई।
सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान् शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया।
शिवजी के इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।
नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी।
इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई।
इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए।
चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं।
धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।
देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं। इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी। इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।
उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं। पीछे से जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह गेह कि सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया। शिव गौरी का विवाह आनंद पूर्वक संपन्न हुआ। हिमाचल ने कन्यादान दिया। विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उत्साह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए कथा के शुभ अवसर पर आचार्य आनन्द प्रकाश नौटियाल, औंकार शुक्ला,अरविंद शुक्ला, राजकुमार नौटियाल, रोहित पंत, अरविंद शुक्ला,प्रदीप सेमवाल,वेद पाठी रविन्द्र भट्ट,गङ्गाधर लिंग, डा लोकेन्द्र रिवाड़ी, उमेश शुक्ला, सुभाष सेमवाल,मनोज शुक्ला,कैलाश जमलोकी, एस आई विपिन चंद्र पाठक, विनोद शुक्ला, सूरज नेगी ,आदि भक्तो के द्वारा कथा श्रवण की गयीं समस्त तीर्थ पुरोहित,साधु संत,देश विदेश से आये कांवड़ियों द्वारा कथा श्रवण की।
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