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सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया


विक्षिप्त व्यक्तियों को मुख्य धारा सेजोड सकता है सहानुभूति पूर्णव्यवहार



समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्यों के लिए समर्पित व्यक्तियों को सम्मानित करने के लिए सरकारों ने विभिन्न पुरस्कारों की व्यवस्था की है ताकि समर्पित भावनाओं को प्रेरणास्रोत बनाकर देश का विकास किया जा सके। यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है। वैदिक काल में ऋषियों के मिलने वाले पदों से लेकर राजतंत्र में दिये जाने वाले खिताब और ओहदे इसी मार्ग में मील के पत्थर बने हैं। सामाजिक संरचना में आम आवाम की सक्रिय भागीदारी और दायित्व बोध को शीर्षान्मुख करने के लिए गणतंत्र में भी राज्य सरकारों से लेकर केन्द्र सरकार तक ने विभिन्न पुरस्कारों को पात्रता की कसौटी पर स्थापित किया है। प्रतिष्ठा के क्रम में भारत रत्न के बाद पद्म पुरस्कारों को स्थान दिया गया है। इन पुरस्कारों के लिए आवेदन हेतु प्रकाशित विज्ञापन देखकर हमारे मस्तिष्क में महाराज छत्रसाल की नगरी के संजय शर्मा का चेहरा उभर आया। बुंदेलखण्ड के इस पिछडे क्षेत्र के इस सेवा भावी युवा की संवेदनायें और समर्पणन केवल प्रशंसनीय लगा बल्कि अनुकरणीय भी लगा। सुबह का समय था। एनसीआर क्षेत्र के इंदिरापुरम् स्थित आवास में बालकनी पर बैठकर अखवारों पर नजर डाल रहा था। सोच साथ-साथ चल ही रही थी, तभी फोन की घंटी बज उठी। फोन देखा तो लगा कि संजय जी की उम्र वास्तव में बहुत लम्बी है। उनका ही फोन था। अभिवादन के आदान-प्रदान के बाद कुशलक्षेम पूछी। यह जानकर सुखद आश्चर्यहुआ कि वे अभी-अभी निजामुद्दीन स्टेशन पहुंचे हैं उत्तर प्रदेश सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस से। हमने तत्काल उन्हें अपने आवास का पता बताकर आने को कहा। संजय जी ने हमेंशा बडे भाई का सम्मान दिया, सलाह ली और सलाह के अनुरूप कार्य योजना बनाकर उसे मूर्त रूप दिया। जंजीरों से जकडे पागलों से लेकर जूठे पत्तल-दौने चाटकर भूख मिटाने वाले लावारिस पागलों तक को मुख्यधारा के साथ जोडने की अभिनव पहल करने वाले अनेक दृश्य हमारे मस्तिष्क पटल पर चल चित्र की तरह चलने लगे। मध्य प्रदेश की सीमा से बाहर जाकर उत्तर प्रदेश, राजस्थान सहित अनेक राज्यों में पागलों का उद्धार करने की जोखिम भरी यात्रायें, उस दौरान प्रशासनिक परेशानियों से लेकर स्थानीय समस्याओं तक से दो-दो हाथ करने वाले इस युवा ने कभी हार नहीं मानी। उदार अधिवक्ता के रूप में अपनीपहचान बना चुके संजय जी ने मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 का गहराई से अध्ययन किया। उसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका के सहयोग से मानसिक विच्छिप्त को मेंटल हास्पिटल पहुचाने की व्यवस्था दी गई है। जिसके कार्यों का अतीत, फिल्म की तरह चल रहाथा, उसकी आवाज ने हमें वर्तमान में लौटने के लिए बाध्य कर दिया।हमारी बालकनी को सडक से देखा जा सकता है, सो संजय जी नेआटो से उतरते ही ऊपर की ओर निहारा और हमें विचार मग्न देखकर आवाज दी। हमने ऊपर आने का इशारा करके फ्लैट के मुख्य द्वार कीओर रुख किया। दरवाजा खोला ही था कि वह अपना एयरबैग लेकर बिल्डिंग की पहली मंजिल पर पहुंचाने वाली आखिरी सीढी पर नजरआये। भारतीय संस्कृति को व्यवहार में जीने वाले संजय ने नजदीक पहुंचकर पैर छुने का उपक्रम किया तो हमने उन्हें कन्धे से पकड करगले लगा लिया। आत्मिक मिलन ने अनुभूतियों को शब्द रहित नई परिभाषा दी। हमने किचिन से पानी लाकर दिया और ड्राइंग रूम मेंसोफे पर धंस गये। परिवार, पेशा और परोपकार के कामों परबातचीत होने लगी। पहले दो बिन्दुओं को जल्दी से समाप्त करके हमने उन्हें पद्म पुरस्कारों के लिये मांगे गये आवेदन वाले विज्ञापन की जानकारी दी। उन्होंने लम्बी सांस खींचकर कहा कि सरकार द्वारा पुरस्कारों के लिए आवेदन मांगना अपने आप में भीख देने जैसा है।रेखांकित किये जाने वाले कार्यों को सरकारी नजर से देखा जानाचाहिये। पात्रता की कसौटी पर खरा उतरने वालों को स्वयं आमंत्रित करने से न केवल पुरस्कार का महात्व बढेगा बल्कि पाने वाला भी गौरवान्वित होगा। हम स्वयं अपना यशगान करें और सरकारी तंत्र उस पर स्पष्टीकरण मांगे। यह व्यवस्था बनावटी जीवन के मध्य स्वार्थ सिद्ध करने वालों लिए तो उचित होगी परन्तु वास्तव में गांव-गांव गली-गली काम करने वाले सेवाभावी लोगों को जरूरतमंदों तक पहुंचने का जुनून होता है और वे उससे बाहर किसी की टिप्पणी,आलोचना, समालोचना के शब्दों को निरर्थक ही मानते हैं। कार्य के लिए सम्मान होना चाहिये, सम्मान के लिए कार्य नहीं। इस युवा के चमकते चेहरे पर आत्म विश्वास का तेज बढने लगा। हमने पागलपन के कारण, उनके निदान और सामाजिक दायित्वों जैसे प्रश्नों पर टटोला शुरू किया। वंशानुक्रम वर्ग को छोड दें तो नशे की आदत का तीव्रतम होना, अति महात्वाकांक्षी होना, शारीरिक क्षमताओं में निरंतर ह्रास होना, मानसिक आघात लगना जैसे बाह्य कारणों को रेखांकित किया जा सकता है। गांजे को पागलपन का सर्वाधिक उत्तरदायी कारक निरूपित करते हुये उन्होंने कहा कि संत समाज के व्दारा गांजेका सेवन चित्त की एकाग्रता बढाने, शारीरिक नपुंसकता बढाने और समाज के बाह्य तत्वों से विरक्ति के लिए किया जाता था। गांजे के सेवन के बाद उसे योग की अन्य क्रियाओं के माध्यम से नियंत्रित करने का भी आदि ग्रन्थों में प्राविधान मिलता है। इसके अनुशासित और विधिवत सेवन जहां सांसारिकता से विरक्त कर व्यक्ति को मानसिक एकाग्रता की ओर बढने में सहायता मिलती है वहीं अनियंत्रित,अनुशासनरहित और अति सेवन पागलपन की विकृति को जन्म दे देती है। से नियंत्रित किया जा सकता है पागलपन। विक्षिप्त व्यक्तियों को समाज की मुख्य धारा से जोड सकता है सहानुभूति पूर्ण व्यवहार।
अभी चार हजार से ज्यादा विक्षिप्तों को मेंटल हास्पिटल पहुंचा चुके संजय जी ने संवैधानिक व्यवस्था का सम्मान करते हुए पद्म पुरस्कार के लिए आवेदन करने के लिए सहमति व्यक्त कर दी। हमारी बातचीतचल ही रही थी कि घर का कामकाज करने वाले नौकर ने प्रवेश किया। हम विक्षिप्तों के अनजाने संसार और उनको मुख्य धारा से जोडने वाले के प्रयासों के आभा मण्डल से बाहर आये। रोचक चर्चा के मध्य हम यह भी भूल गये कि संजय जी रात भर के सफर के बाद बिना चाय पिये हमारी जिग्यासाओं को शान्त करने में जुटे हैं। तत्काल चाय-नाश्ता के लिए नौकर को निर्देश दिये। संजय जी ने भी बाथरूम जाने की इच्छा व्यक्त की। हमने उन्हें बाथरूम तक पहुंचाया। और फिर से बालकनी में बैठकर अखबार खंगालने लगे। इस बार बस इतना ही। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नयी शक्सियत के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के लिए खुदा हाफिज।



Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
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