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तीन साल पहले तक पूरे भारत में, अधिकतर ग्रामीण और कई शहरी इलाकों में लाखों लोग सुबह के नित्यकर्म को लेकर बेपरवाह थे। खासकर वे खुले में खुद को कहीं भी हल्का कर लेते थे। उन्हें स्वच्छता के साथ-साथ इस वजह से होने वाली बीमारियों की तनिक भी चिन्ता नहीं रहती थी। माता-पिता अपने बच्चों को गंभीर खतरे में डाल रहे थे।


2 अक्टूबर, 2019 तक (महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती) तक सार्वभौमिक स्वच्छता के साथ स्वच्छ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान के बाद लोगों  की आदतों में बड़ा बदलाव आया है। इस दौरान सदियों से चली आ रही खुले में शौच की आदत में उल्लेखनीय कमी आई है।


सार्वभौमिक स्वच्छता भारत के विकास एजेंडे में सबसे ऊपर है। 2014 तक, केवल 39 प्रतिशत लोगों तक ही सुरक्षित स्वच्छता वाली सुविधाओं की पहुंच थी। आज स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के तीन साल पूरे होने के बाद पूरे देश में पांच राज्यों, लगभग 200 जिलों और लगभग 2.4 लाख गांवों ने खुद को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया है। इसके अलावा, गांवों में ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन के आधार पर 1.5 लाख गांवों ने स्वच्छता सूचकांक में रैंकिग दर्ज कराई है।


बेहतर स्वच्छता के परिणामस्वरूप घरेलू बचत हुई है। एसबीएम के लागत लाभ का अनुमान लगाने के लिए यूनिसेफ द्वारा हाल ही में किए एक स्वतंत्र अध्ययन से यह पता चला है कि स्वच्छता में सुधार के लिए निवेश किए गए प्रत्येक रुपये से 4.30 रुपये की बचत हुई है। अध्ययन में पाया गया कि औसत लागत-लाभ का अनुपात 430 प्रतिशत था। अध्ययन में "एक तरफ घरेलू और सरकारी व्यय, और दूसरी तरफ बेहतर स्वच्छता से प्रेरित वित्तीय बचत के विचार" का पता चला। इससे लाभ लेने वाली आबादी में सर्वाधिक संख्या गरीबों की थी।


इसके अलावा, पूरी तरह से ओडीएफ समुदाय में, एक औसत परिवार जो शौचालय में निवेश करता है वह प्रति वर्ष करीब 50,000 रुपये की बचत करता है। चिकित्सा लागत और मृत्यु दर पर ध्यान दिया जा रहा है और समय की बचत भी हो रही है। 12 राज्यों में चयनित 10,000 ग्रामीण परिवारों पर किए गए अध्ययन में यह पाया गया कि 85 प्रतिशत परिवार के सदस्य अपने शौचालयों का उपयोग करते हैं। सर्वेक्षण घरेलू स्तर पर स्वच्छता के आर्थिक प्रभाव को मापने के लिए किया गया था।


जल और स्वच्छता मंत्रालय के सचिव परमेश्वरन अय्यर बताते हैं कि भारतीय गुणवत्ता परिषद ने 1,40,000 घरों में एक स्वतंत्र सर्वेक्षण किया था, जिसमें पाया गया कि 'घरेलू शौचालय का उपयोग करने वालों की संख्या 91 प्रतिशत है।'


सुलभ और सुरक्षित शौचालयों की बदौलत ग्रामीणों के जीवन में एक बड़ा गुणात्मक परिवर्तन आया है। विशेष रूप से उन महिलाओं को सुरक्षा प्राप्त हुई है जो अंधेरे में खुले में शौच जाने के लिए मजबूर थे तथा उन्हें मानसिक यातना का सामना करना पड़ता था।


उचित स्वच्छता की सुविधाओं की कमी से स्वास्थ्य और परिव्यय में वृद्धि हो जाती है जिसका खामियाजा भारत की जीडीपी पर प्रतिवर्ष 6 प्रतिशत  पड़ता है। अनुसंधान में शौचालय, कुपोषण जैसी तथ्यों का जिक्र किया गया है। शौचालय की कमी के कारण दूषित वातावरण के सम्पर्क में रहने से आमजन के स्वास्थ्य पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। अतिसार बीमारियों से प्रभावित 10,000 बच्चों की मौतें डायरिया के कारण हुईं हैं। विश्व बैंक के अनुसार भारत के लगभग 40 प्रतिशत बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित रहे हैं।


सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि लोगों की सोच में परिवर्तन लाया जाए, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र की जनता में जिनके पास शौचालय की कमी है जिसे एक बुनियादी ढांचे के कार्यक्रम के द्वारा पूरा किया जा सकता है। सभी महत्वपूर्ण कारकों पर ध्यान केंद्रित करना होगा तथा सदियों पुरानी बुरी आदत से निपटने और इसके बारे में बात करने के लिए जागरूक करना होगा। स्वच्छता के लिए सामुदायिक बहस के जरिये कई पारस्परिक तकनीकों के उपयोग के माध्यम से देश में परिवर्तन लाया जा रहा है।


वॉश (जल, स्वच्छता, साफ सफाई), यूनिसेफ इंडिया के मुखिया निकोलस ऑस्बर्ट्स का कहना है ‘हजारों शौचालयों का निर्माण किया जा रहा है। वास्तव में व्यवाहारिक परिवर्तन देखा जा रहा है।’


मिशन मजबूत करने और इसे आगे बढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार त्वरित पखवाड़ा अभियान के तहत ‘स्वच्छता ही सेवा है’ जैसे कई कार्यक्रमों का संचालन कर रही है, जिसमें शौचालयों, बस स्टैंड, सिनेमा घरों, रेलवे स्टेशनों, सार्वजनिक सभागारों और कई अन्य की सफाई शामिल है। इस अभियान का समापन 2 अक्तूबर को ‘स्वच्छ भारत दिवस’ के साथ होगा।


खुले में शौचमुक्त शहरों के वर्तमान अभियान को आगे बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं और भूमि तथा नदियों को नुकसान पहुंचाए बिना सुरक्षित शहरी पर्यावरण के प्रबंधन की दिशा में भी कार्य किया जा रहा है। हर दिन भारत में लगभग 1.7 मिलियन टन मल संबंधी कचरा पैदा होता है। इसका लगभग 78 प्रतिशत मल अनुपचारित रहता है और इसे नदियों, झीलों या भूजल में फेंक दिया जाता है। इससे बैक्टीरिया और रोगजनक पैदा होते हैं, जिससे बीमारी होने का खतरा बना रहता है और स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक बन जाता है।


पहाड़ी, सूखे से प्रभावित, बाढ़ प्रभावी और दूर-दराज के क्षेत्रों में टिकाऊ, पर्यावरण अनुकूल और सस्ती शौचालय तकनीक के लिए युवाओं तथा अन्य हितधारकों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। शौचालयों के उपयोग तथा उनकी निगरानी के लिए तकनीकी समाधान और व्यावहारिक परिवर्तन लाने की दिशा में कार्य किया जा रहा है। खुली अवधि वाली योजनाओं के विपरीत यह मिशन कार्य को पूरा करने की दिशा में तेजी से अग्रसर है और 12 लाख शौचालयों का निर्माण करके भारत को खुले में शौच कराने की दिशा में अग्रसर है। यह एक कठिन और ज्यादा समय लेने वाला अभियान है, जिसमें व्यावहारिक परिवर्तन और स्वच्छता के प्रति प्रत्येक का सहयोग शामिल है, जो प्रधान या कलेक्टर या सांसद द्वारा भी किया जा सकता है। इसे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों, जिला मजिस्ट्रेट, गांव के मुखियाओं द्वारा संचालित किया जा रहा है।


इसके अलावा स्वच्छाग्राही सेना बनाई गई है और नुक्कड़ नाटकों को बढ़ावा दिया गया है। व्यावहारिक परिवर्तनों को आम जन द्वारा प्रेरित किया जा रहा है और प्रमुख हस्तियों द्वारा संदेश के माध्यम से खुले में शौच के प्रति जागरूकता पैदा की जा रही है।


** लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं, जो मीडिया जगत – प्रिंट, ऑनलाइन, रेडियो और टेलीविजन में चार दशकों का अनुभव रखते हैं। लेखक विज्ञान और विकास संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं।


 

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