उपनल कर्मचारी लंबे समय से “समान कार्य-समान वेतन” और “नियमितीकरण” की पूरी तरह न्यायसंगत मांग को लेकर सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं।
ये कर्मचारी उत्तराखण्ड के विभिन्न विभागों में वर्षों-वर्षों से कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं, कई तो 15-20 साल से अधिक समय से अपनी सेवाएँ दे रहे हैं, और अब कुछ तो रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़े हैं।
इनके योगदान के बावजूद इन्हें न तो स्थायी कर्मचारियों जैसा वेतन मिलता है, न ही पेंशन, ग्रेच्युटी, चिकित्सा सुविधा या अन्य कोई सामाजिक सुरक्षा।
यह स्थिति न सिर्फ अन्यायपूर्ण है, बल्कि संवैधानिक रूप से भी असंगत है, क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार “Equal Pay for Equal Work” के सिद्धांत को मान्यता दी है। सरकार का “नो वर्क नो पे” का नियम लागू करना इन कर्मचारियों पर और अत्याचार है।
जो मेहनताना पहले से ही बहुत कम है, उसे भी रोककर सरकार उन्हें जीविकोपार्जन से वंचित कर रही है। यह दमनकारी कदम नहीं, बल्कि संवाद का रास्ता अपनाना चाहिए। उपनल कर्मचारियों का आंदोलन कोई नई माँग नहीं है, यह तो उनका हक़ है।
इन्हें तत्काल प्रभाव से समान कार्य-समान वेतन दिया जाए और लंबे समय से सेवा दे रहे कर्मचारियों का चरणबद्ध तरीके से नियमितीकरण किया जाए।
केरल, हरियाणा, पंजाब जैसे कई राज्यों ने पहले ही अपने संविदा और आउटसोर्स कर्मचारियों को नियमित कर न्याय का उदाहरण पेश किया है। उत्तराखण्ड सरकार को भी अब पीछे नहीं हटना चाहिए।
समाजसेवक सोवत राणा का कहना है कि वह मन से उपनल कर्मचारी साथियों के साथ खड़ा हूँ। यह संघर्ष सिर्फ़ वेतन या नौकरी का नहीं, सम्मान और न्याय का संघर्ष है।
दो उपनल कर्मचारियों के निधन पर मैं शोक व्यक्त करता हूं और सरकार से मांग करता हूं उनके परिवारों को उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए।
उत्तराखण्ड सरकार से अपील है उपनल कर्मचारियों को उनका हक़ देकर इतिहास में न्यायपूर्ण सरकार के रूप में जगह बनायें।
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