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श्रवण मास के ,आज प्रारम्भ होते ही शुरू हो जाएगी, कांवड़ यात्रा  जो सदियों से अनवरत चली आ रही है, भले ही इसका स्वरुप बदल गया हो----




 शिव और श्रवण  मास का अटूट सम्बन्ध है. शिव की विभिन्न लीलाएं  श्रवण मास में होने के कारण ,इस मास को अत्यंत पवित्र और पूज्य  माना गया है.  श्रावण मास में  भोले शंकर का मात्र गंगाजल से अभिषेक  करने से ही ,  मनुष्य को सभी विकारों से मुक्ति मिलती  है और सांसारिक  और  को प्राप्त करने और भोगने का बल भी मिलता है.
गंगा का सानिध्य और भगवान् शंकर का स्मरण मात्र ही मनुष्य को समस्त पापों से मुक्ति प्रदान करता है. 

श्रावण मास अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है. श्रवण नक्षत्र तथा सोमवार से भगवान शिव शंकर का गहरा संबंध है. इस मास का प्रत्येक दिन पूर्णता लिए हुए होता है. धर्म और आस्था का अटूट गठजोड़ हमें इस माह में दिखाई देता है इस माह की प्रत्येक तिथि किसी न किसी धार्मिक महत्व के साथ जुडी़ हुई होती है. इसका हर दिन व्रत और पूजा पाठ के लिए महत्वपूर्ण रहता है.

 

माह में महामृत्युंजय और पंचाक्षरी मन्त्र  का जाप   सभी आकस्मिक विपत्तियों और  दुर्घटनाओं से हमारी रक्षा  करता है।   वैसे तो शिवलिंग पर दुग्धाभिषेक , गंगजलाभिषेक, चंदन, बिल्वपत्र, दही, शहद  को अर्पण करना शिवजी को अत्यंत  प्रिय है परन्तु वस्तुएं उपलब्ध नहीं होने  की  स्थिति में  मात्र गंगाजल ही  पर्याप्त माना गया है.
शिवलिंग का अभिषेक फलदायी माना गया है. इन दिनों अनेक प्रकार से  शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है जो भिन्न भिन्न फलों को प्रदान करने वाला होता है. जैसे कि जल से वर्षा और शीतलता  कि प्राप्ति होती है. दूग्धा अभिषेक एवं घृत से अभिषेक करने पर योग्य संतान कि प्राप्ति होती है. ईख के रस से धन संपदा की प्राप्ति होती है. कुशोदक से समस्त व्याधि शांत होती है. दधि से पशु धन की प्राप्ति होती है ओर शहद से शिवलिंग पर अभिषेक करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है.


इस श्रावण मास में शिव भक्त ज्योतिर्लिंगों का दर्शन एवं जलाभिषेक करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त करता है तथा शिवलोक को पाता है. 

 शिव का श्रावण में जलाभिषेक के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार जब देवों ओर राक्षसों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन किया तो उस मंथन समय समुद्र में से अनेक पदार्थ उत्पन्न हुए और अमृत कलश से पूर्व कालकूट विष भी निकला उसकी भयंकर ज्वाला से समस्त ब्रह्माण्ड जलने लगा इस संकट से व्यथित समस्त जन भगवान शिव के पास पहुंचे और उनके समक्ष प्राथना करने लगे, तब सभी की प्रार्थना पर भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने हेतु उस विष को अपने कंठ में उतार लिया और उसे वहीं अपने कंठ में अवरूद्ध कर लिया.

जिससे उनका कंठ नीला हो गया समुद्र मंथन से निकले उस हलाहल के पान से भगवान शिव ने उस ताप को सहन किया ,अत:  मान्यता है कि वह समय श्रावण मास का समय था और उस तपन को शांत करने हेतु देवताओं ने गंगाजल से भगवान शिव का पूजन व जलाभिषेक आरंभ किया, तभी से यह प्रथा आज भी चली आ रही है प्रभु का जलाभिषेक करके समस्त भक्त उनकी कृपा को पाते हैं और उन्हीं के रस में विभोर होकर जीवन के अमृत को अपने भीतर प्रवाहित करने का प्रयास करते हैं.

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