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                        समाज के आखिरी छोर से देश के प्रथम नागरिक का चयन होते ही नई संभावनाओं ने दस्तक देना शुरु कर दी है। 

अभाव भरी जिन्दगी से लेकर प्रशासनिक तानाशाही सहित राजनैतिक स्वार्थो तक को अनुभव करने वाले व्यक्तित्व ने राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर आमद दर्ज कर दी है। उडीसा के मयूरभंज जिले के बैदापोसी गांव के बिरंचि नारायण टुडु की पुत्री रत्न के रुप में 20 जून 1958 को जन्म लेने वाली द्रौपदी मुर्मू ने अध्यापिका के दायित्वों से सेवा की शुरूआत की थी। समाज को नई और पारदर्शी दिशा देने की मंशा से उन्होंने 1997 में राइरंगपुर की नगर पंचायत में पार्षद पर नामांकन दाखिल किया और धमाकेदार जीत दर्ज की। यहीं से उनके राजनैतिक सफर का आगाज हुआ। भारतीय जनता पार्टी के आदर्श और सिध्दान्तों से प्रभावित होकर उन्होंने पार्टी की सदस्यता ली और अनुसूचित जनजाति मोर्चा के उपाध्यक्ष का दायित्व सम्हाला। बाद में मयूरभंग जिले के रायरंगपुर विधानसभा क्षेत्र का सन् 2000 और 2006 में प्रतिनिधित्व किया। बीजू जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन वाली सरकार में वे सन् 2000 तथा 2004 में वाणिज्य, परिवहन तथा बाद में मत्स्य और पशु संसाधन विभाग की मंत्री रहीं। समाज सेवा के नये आयाम तय करने के कारण उन्हें सन् 2015 में झारखण्ड  के तत्कालीन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वीरेन्द्र सिंह ने प्रदेश के 9वें राज्यपाल की शपथ दिलाई गई। देश के 15वें राष्ट्रपति के चुनाव में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू ने विपक्ष के संयुक्त प्रत्याशी यशवन्त सिन्हा को पराजित कर दिया है। राज्यसभा के महासचिव और राष्ट्रपति चुनाव के रिटनिंग .

  द्रौपदी मुर्मू को 2,824 मत प्राप्त हुए जिनका मूल्य 6, 76,802 रहा और यशवन्त सिन्हा को 1,877 मत प्राप्त हुए जिनका मूल्य 3,80,177 रहा जबकि 53 मत अवैध पाये गये। वे  कल यानी 25 जुलाई को देश के15वे राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण करेंगी। 

सुख-दु:ख भरे जीवन को आत्मसात करने वाली एक संघर्षशील ग्रामीण आदिवासी महिला के प्रथम नागरिक बनने के बाद अब आम आवाम को परिवर्तन की आशा दिखने लगी है।

 ऐसे में विशेषाधिकार के तीन सूत्रों से बदल सकती है देश की तकदीर। इन सूत्रों को लागू करने के लिए केन्द्र की एनडीए सरकार भी सोने में सुगन्ध का मुहावरा चरितार्थ कर सकती है। पहला सूत्र देश की निर्वाचन व्यवस्था से संबंधित हो सकता है जिसमें पार्षद से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनावों में नामांकन दाखिल करने वालों को वर्तमान औपचारिकताओं के अलावा परिवार के एक सदस्य का सेना में कार्यरत होने का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य होना चाहिए ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड करने वाली कथित राजनैतिक मानसिकता समाप्त हो सके। वर्तमान में तो अग्निवीरों की भर्ती ने इस प्रमाण पत्र को और भी सरल बना दिया है। जनप्रतिनिधि बनने की दौड में आने से पहले उम्मीदवार को अपने देश की सीमायें सुरक्षित रखने की चिन्ता का व्यवहारिक स्वरूप भी प्रदर्शित करना चाहिए ताकि निजी स्वार्थों से लेकर दलगत हितों हेतु होने वाले समझौतों पर लगाम लग सके। सेना के जवानों को आतंकियों की फौज से पिटना न पडे, आत्म सुरक्षा के लिए पत्थरबाज को जीप में बांधकर निकलने वाले सुरक्षाकर्मियों को स्पष्टीकरण ने देना पडे और कथित मानवता की दुहाई पर सेना का मनोबल तोडने वालों की जुबान पर लगाम लग सके। इस संशोधन के माध्यम से जहां देश की सीमायें सुरक्षित रह सकेंगी वहीं जनप्रतिनिधि के रूप में कार्यरत विधायिका की राष्ट्रभक्ति पर नागरिकों को प्रश्नचिन्ह अंकित करने का मौका नहीं मिलेगा। दूसरे सूत्र को रूप प्रशासनिक व्यवस्था में आंशिक संशोधन की आवश्यकता होगी जिसमें सरकारी सेवकों के लिए सरकारी संस्थानों के उपयोग की बाध्यता सुनिश्चित की जाना चाहिए। सरकारी सेवा में कार्यरत अधिकारी और कर्मचारियों को अपने बच्चों एवं आश्रितों को केवल सरकारी स्कूलों, कालेजों एवं सस्थानों में ही पढाना होगा। अपने आश्रितों का इलाज केवल सरकारी चिकित्सालयों में कराना होगा। इसी तरह के जीवन से जुडे समस्त आयामों को सरकारी संस्थानों की सुविधाओं से ही पूरा करना होगा। इनका उलंघन करने वालों की सरकारी सेवायें स्वत: ही समाप्त करने का प्राविधान हो। ऐसा होते ही सरकारी स्कूलों से लेकर सरकारी चिकित्सालयों की गुणवत्ता में सुधार होने की संभावना बलवती होगी तथा भारी भरकम वेतन पाने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों को पूरी तरह से व्यवहारिक कर्तव्यपरायण बनना पड जायेगा। जब जिला कलेक्टर का पुत्र मुहल्ले की सरकारी प्राथमिक पाठशाला में पढने जायेगा तो वहां तैनात शिक्षकों को पाठशाला में पढाई का वातावरण निर्मित करना ही पडेगा। ऐसा ही सरकारी अस्पतालों में सुधार स्वमेव ही हो जायेगा। तीसरे और अंतिम सूत्र के रूप में मुफ्तखोरी, अनुदान, विशेष सुविधायें, जन्म के आधार पर विशेषाधिकार, जाति के आधार पर विभाजन जैसे कारकों को पूरी तरह से समाप्त करना होगा। जिसमें निजिता की व्यक्तिगत सीमाओं तक ही धार्मिक आयोजनों एवं प्रतीकों का विस्तार, संस्थागत सिध्दान्तों को अनुयायियों की परिधि तक ही बांधना तथा समाजसेवा के नाम पर की जाने वाली संदिग्ध गतिविधियों की सतत निगरानी जैसे कारक शामिल होंगे। अनुभवों की भट्टी में पककर कुन्दन बनकर निखने वाली देश की 15वीं राष्ट्रपति को वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए  विशेषाधिकार के तीन सूत्रों को प्राथमिकता के रूप में स्वीकारना ही चाहिए ताकि अव्यवस्थों के मकडजाल का प्राथमिक उपचार हो सके। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


Dr. Ravindra Arjariya

Accredited Journalist

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dr.ravindra.arjariya@gmail.com


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