रूद्रप्रयाग :
भूपेंद्र भण्डारी
अब हम आपको एक ऐसे
परिवार की दुःख भरी दास्ता दिखाने जा रहे हैं जिसे देखकर और सुनकर आपकी
आंखों में भी पानी आ जायेगा। इस परिवार को नियति ने ऐसे घाव दिए हैं
जिन्हें हमारा काबिल सिस्टम भी नहीं भर पाया है। देखिए ये रिपोर्ट-
कहते हैं जब ऊपर वाला इम्तहान लेता है तो चैतरफा दुःखो के ऐसे पहाड़ गिरा
देता है कि जिंदगी जीते जी मौत से भी भारी लगती है। आज हम आपको ऐसे अभागे
परिवार की दुख भरी दास्ता बताने जा रहे हैं, जिसे नियती ने ऐसे घाव दिए है
कि उन्हें भरने वाला कोई नहीं है। रूद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि विकासखड के
कमेड़ा गांव के विनोद सिंह राणा ने दो वर्ष पूर्व तक कभी सोचा भी नहीं था कि
नियति उसके साथ ऐसा खेल खेलेगी कि उसकी जिंदगी जीते जी नर्क बन जायेगी।
हरिद्वार में प्राईवेट टैक्सी चलाने वाला विनोद सिंह को वर्ष 2018 में
अचानक ही ऐसी बीमारी ने घेर लिया कि उसके हाथ-पाँव ने काम करना ही बंद कर
दिया। परिवार का इकलौता चिराग विनोद के ईलाज के लिए उसके गरीब वृद्ध पिता
भगवत सिंह कर्चपात कर उसे श्रीनगर बेस अस्पताल से लेकर इन्द्रेश और एम्स,
के साथ ही दिल्ली के कई अस्पतालों में ले गए लेकिन लाखों खर्च करनेे के
बावजूद भी विनोद ठीक होना तो रहा दूर जिंदा लाश बनकर रह गया।
विनोद आज भी बिना दो लोगों के सहारें अन्दर बाहर नहीं जा पाता। बिन सहारे
बिस्तर से खड़ा नहीं हो पाता। मराणासन स्थिति में पहुँचे विनोद की बीमारी तो
खत्म नहीं हुई लेकिन कर्ज के बोझ तले दबे विनोद के पिता भगवत सिंह बीते 11
अप्रैल को इसी चिंता में इस दुनियां से चल बसे। विनोद के बाद वृद्ध पिता
किसी तरह ध्याड़ी मजदूरी करके परिवार का लालन-पालन कर ही रहे थे लेकिन उनके
जाने के बाद बूढी माँ, विनोद की पत्नी और दो अबोध बच्चों के भरण पोषण का
संकट पैदा हो गया। ऊपर से हर महिने तीन हजार की दवाई का खर्चे की चिंता भी
परिवार को अंदर ही अंदर तोड़ रही है। स्थिति यह है कि परिवार दाने-दाने को
मौहताज है।
दो वर्षों से विकलांग अवस्था में पड़ा विनोद के लिए न सरकारों का आयुष्मान
भारत कार्ड कोई काम आया और न अपने देश की स्वास्थ्य व्यवस्थाएं। सरकारें
स्वास्थ्य महकमें को बेहतर करने के कितने ही ढोल क्यों न पीटे लेकिन विनोद
जैसे गरीब मरीजों के लिए यह अभिशाप से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुई हैं।
लाखों का कर्च कर ईलाज करा चुके विनोद का परिवार अब पूरी तरह से थक-हार कर
उम्मीद खो चुका है। यहां तक की अब लोगों से मदद मांगने की हिम्मत भी परिवार
पर नहीं बची हैं। नियति को कोषते-कोषते बूढ़ी माँ के आँखों से बहती आसुओं
की धार थामे नहीं थम रही है और पत्नी भविष्य के अंधरे से सुन पड़ी है। गांव
के लोग आते जाते ढाढ़स तो बंधा जाते हैं लेकिन दुःखों का बोझ इतना है कि
जिंदगी भारी और मौत आसान लगती है।
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