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सहज संवाद  / डा. रवीन्द्र अरजरिया

आधुनिक युग में पुस्तकों, संदर्भ-ग्रंथों और शोध-पत्रिकाओं का नितांत अभाव होता जा रहा है। विकल्प के रूप में नेट का प्रचलन निरंतर तेज होता जा रहा है। ऐसे में संकलित सामग्री की प्रमाणिकता पर अनेक प्रश्नचिन्ह अंकित होन लगे है। अपुष्ट सूत्रों से जुटाई गई सामग्री को भी अनियंत्रित नेट पर डालकर, विद्वता का तमगा लगाने वालों की कमी नहीं है। हमें अपने चैनल में विशेष प्रसारण हेतु प्रमाणित संदर्भों की आवश्यकता थी। संस्था के संबंधित विभाग ने जिन संदर्भों के आधार पर प्रोजेक्ट तैयार किया था, उसकी प्रमाणिकता मांगने पर उन्होंने नेट की अनेक अनजानी लिंक प्रस्तुत की गई। उन लिंक में भी प्रकाशित किये गये आलेखों का कोई प्रमाणित संदर्भ नहीं था। ऐसी परिस्थिति में समाधान हेतु हमारे जेहन में प्रो. आनन्द प्रकाश सक्सेना का चेहरा उभर आया। प्रोफेसर सक्सेना लम्बे समय से जरनल आफ इनवायरमेंट एण्ड सोसल साइंस रिसर्च का सम्पादन कर रहे है। तत्काल उन्हें फोन लगाकर मिलने की इच्छा व्यक्त की। यूं तो वह हमारे सहपाठी अम्ब्रीश कुमार सक्सेना के बडे भाई है परन्तु आज हमने उन्हें नेट से संकलित सामग्री की प्रमाणिकता हेतु आमंत्रित किया था। क्यों कि वे विभागाध्यक्ष (वनस्पति विज्ञान) के पद से सेवानिवृत होने का बाद से निरंतर शोधकार्यों, अनुसंधानों और नवागन्तुक वैज्ञानिकों को मार्गदर्शन देने में व्यस्त रहते हैं। निर्धारित समय पर हम आमने सामने थे। नेट से संकलित सामग्री का अवलोकन करने के बाद उन्होंने अनेक विरोधाभाषी तथ्यों को रेखांकित किया। गहराई से अध्ययन के उपरांत उन्होंने प्रोजेक्ट रिपोर्ट से लेकर स्क्रिप्ट तक को विभिन्न शोधों, वर्तमान उपलब्धियों और व्यवहारिक मान्यताओं की नींव पर खडा कर दिया। हमने नेट के इस दौर में प्रमाणिकता की स्थिति पर उनकी राय जाननी चाही। तनिक गम्भीर होकर उन्होंने कहा कि 80 के दशक के बाद वास्तविक शोध करने और कराने वालों की खासी कमी होती गई। आज भारतीय वैज्ञानिक भाभा के बाद आम आवाम की जुबान पर कोई अन्य भारतीय वैज्ञानिक स्थान नहीं बना पाया। इस गिरावट के पीछे कट-पेस्ट और जल्दबाजी की अघोषित परम्परा, एक महात्वपूर्ण कारक है, जिससे निजात पाये बिना वास्तविकता के नजदीक पहुंच पाना बेहद कठिन है। नेट के अकूत भण्डार को विशेषज्ञों के नियंत्रण के बिना परोसना, न केवल इतिहास के साथ खिलवाड करना है बल्कि आने वाली पीढी को भी भ्रमित करना है। शोध पत्रिकाओं से लेकर संदर्भ ग्रंथों तक के प्रकाशनों पर नेट के तिलिस्म ने कुठाराघात करना शुरू कर दिया है। अस्तित्व के लिए संघर्षरत सार्थक, प्रमाणित और शोधपरक प्रकाशनो का शासकीय संरक्षण भी समाप्त हो गया है। संस्थाओं के स्वयं के प्रयासों से ही इस तरह के प्रकाशनों को मूर्त रूप दिया जा रहा है। वास्तविकता तो यह कि प्रमाणित सामग्री हेतु आज भी प्रासंगिक है संदर्भ-ग्रंथ और शोध-पत्रिकायें। आर्थिक अभाव से लेकर वितरण तक की रेखांकित की जाने वाली स्थितियों पर हमने प्रोफेसर सक्सेना की समीक्षा को विस्तार में जाने से रोकते हुए, उन्हीं से समाधान देने का निवेदन किया। उन्होंने हल्की मुस्कान समेटते हुए कहा कि शासकीय बजट में प्रचार-प्रसार के नाम पर दिये जानी वाली धनराशि में से एक भाग यदि शोधों के प्रकाशन से लेकर स्थलीय अनुसंधानों के लिए आरक्षित कर दिया जाये तो आने वाले समय में न केवल इसका विकास होगा बल्कि नई संभावनायें भी सामने आयेंगी और देश का नाम विश्व भाल पर होगा। बातचीत का दौर चल ही रहा था कि नौकर ने स्वल्पाहार की प्लेटें से सजी ट्राली लेकर कमरे में प्रवेश किया। इस व्यवधान ने विस्त्रित विषय पर हो रही समीक्षा पर अल्प विराम लगाया। फिर कभी इस विषय पर लम्बी चर्चा के आश्वासन के साथ हमने स्वल्पाहार ग्रहण किया और इस अध्याय के पटाक्षेप की अनुमति ली। इस बार इतना ही। अगले हफ्ते एक नये मुद्दे के साथ फिर मिलेंगे। खुदा हाफिज।

Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
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